जीवन के चारों पुरुषार्थ संकेत देते हैं कि धर्म ही जीवन की बुनियाद है। इनमें धर्म को प्रथम मिलना इस तथ्य को निर्विवादित करता है कि धर्म विहीन जीवन हो ही नहीं सकता| धर्म व्यक्ति को अचारण, शुद्धता, दया, मानवता, कर्तव्यनिष्ठा, समर्पण, स्नेह, संस्कार तथा आस्था प्रदान करता है| धर्म ही मनुष्य को मनुष्यता देता है। ध्यान रहे कि धार्मिक कर्मकांड एवं अनुष्ठान धर्म के वास्तविक प्रतिरूप नहीं है, धर्मनिष्ठा तथा सात्विकता से धर्मानुसार जीवन पद्धति को अंगीकृत करना ही धर्म का सहज रुप है। धर्म ही ऐसा पुरुषार्थ है जो मनुष्य को पशु-पक्षियों से अलग पहचान देता है। सृष्टि में अन्य जीवो का धर्म आत्मिक चिंतन एवं आध्यात्मिकता पर आधारित नहीं है, अपितु उनका धर्म प्राकृतिक है| हिंसक पशु जीव भक्षण करता है तो भी यह अधर्म की श्रेणी में नहीं है, लेकिन मनुष्य धर्म के द्वारा स्वयं को सात्विक व्यक्तित्व प्रदान करता है। धर्म को शब्दों के प्रपंच जाल से समझने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए।

– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत