श्री श्री 1008 श्री अचलानन्द गिरी जी महाराज का जीवन चरित्र
भारत एक धर्म प्रधान देश है, जहां धर्म का अत्यधिक महत्व रहा है| नाई जाति में सर्वप्रथम सन्त शिरोमणि सन्त श्री सैनजी महाराज ने धर्म के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की थी| उदिम काल के महान संतों में अपना स्थान सुरक्षित करा कर वे भारतीय इतिहास में अमर हो गये| फलस्वरुप आज नाई जाति सैन समाज का पर्याय बन गई| आज इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है| वर्षों पूर्व जो स्थान भक्त सैन ने बनाया था, आज शायद अचलानन्द गिरी जी महाराज के रूप में सैनजी पुन: अवतरित हुए हैं| 21 वीं शताब्दी के दौर में अचलानन्दजी महाराज ऐसी विभूति है, जिन्होंने धर्म के क्षेत्र में इस जाति का गौरव बढ़ाया है| यद्धपि साधु-संतों की कोई जाति नहीं होती, परंतु क्योंकि महाराज श्री ने नाई जाति में जन्म लिया है और उन्होंने भी श्री सैनजी महाराज की ही भांति धर्म के क्षेत्र में उपलब्धि हासिल कर इस जाति का गौरव बढ़ाया है अत: वे हमारे दुगुने श्रद्धा पात्र हैं| जो समाज के सभी वर्गों व जातियों की श्रद्धा अर्जित की है, वह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है|
महाराज श्री का जन्म 30 अप्रैल, 1953 को गांव खिन्दाकौर, तहसील ओसियां, जिला जोधपुर (राजस्थान) में हुआ था| आपके पिता का नाम स्वर्गीय श्री राजूरामजी एवं माता श्रीमती कुसुम्भी बाई है| आपका जन्म अश्लेषा नक्षत्र में हुआ था| ज्योतिषियों की मान्यता थी कि अश्लेषा नक्षत्र में उत्पन्न बालक या तो जन्म से 1 वर्ष के भीतर मर जाता है या माता-पिता के लिए दु:खदायी होता है| यदि बालक जीवित रहता है तो बड़ा यश कमाता है, ठीक वैसा ही घटित हुआ महाराज श्री के जन्म के एक वर्ष के भीतर ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया| महाराज श्री अपने पिता की अंतिम तथा सातवीं संतान हैं| इनके बड़े 4 भ्राता व 2 बहने हैं| अंतिम संतान होने के कारण इनके ऊपर कोई पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं थी| आश्लेषा नक्षत्र में पैदा होने के कारण नक्षत्र के नाम पर ही इनका नामकरण हुआ| अश्लेषा नक्षत्र को मारवाड़ी भाषा में अचला नक्षत्र कहते हैं| अतः इनका नाम अचलाराम रखा गया| लाड प्यार से इनको अलिया नाम से पुकारा जाने लगा| सन्त बनने के बाद उनका नाम सन्त परंपरा अनुसार अचलानन्द गिरी महाराज कर दिया गया| बचपन के साथी व परिजन उनको ‘अलिया’ महाराज नाम से संबंधित करते हैं|
आपकी जन्म से ही धर्म में रुचि थी| अपने गांव खिन्दाकौर की उच्च प्राथमिक विद्यालय में 1961 में प्रवेश लिया, वे संकीर्तन से बहुत प्रभावित थे| जहां कहीं संकीर्तन होता वे वहां पहुंच जाते| सन 1969 में उन्होंने आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की और उच्च अध्ययन के लिए उन्हें जोधपुर शहर भेजा गया| उन्होंने नवीं कक्षा में प्रवेश लिया परंतु उनका मन धर्म की तरफ भटकने लगा| उन्होंने धर्म, ज्ञान व भजन-संकीर्तन की पुस्तकें खरीदी और स्कूल में भी साथ ले जाने लगे| अध्यापक पढ़ाते जब वे संकीर्तन की किताबे आगे रख लेते और उसी में तल्लीन रहने लगे| परीक्षा में उत्तर पुस्तिकाओं में उन्होंने बाबा रामदेव के भजन लिख डाले| धर्म के प्रति रुचि से परिजन बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने उनके परिजनों ने उनको पीटा स्कूल छुड़वा दी| वे घर पर दु:खी रहने लगे और संकीर्तन करते बाबा रामदेव की कथा का वाचन करते और परिजनों से रोज पीटते|
एक दिन सपने में बाबा रामदेव ने उन्हें दर्शन दिए और हुक्म दिया कि तुम उत्तराखंड की यात्रा पर जाओ और वहां से नंगे पांव पैदल चलकर मेरे मंदिर आकर दर्शन करो| 1972 की जेठ की तपती लू में भी उत्तराखंड की यात्रा पर निकल पड़े| देवयोग से 1008 श्री गुरु रामानन्दजी महाराज जूना अखाड़ा काशी रिद्धनाथी मडी जोशीमठ के दसनाम सन्यास पद के आचार्य जी से आपकी भेंट हुई| उन्हीं से आपने गुरु दीक्षा प्राप्त की| हरिद्वार से राजदादी सा भटियाणी जी (मारवाड़ के महाराजा स्वर्गीय उम्मेदसिंहजी सा बहादुर की महारानी) ने स्वयं अपनी ओर से 25000/- रूपये धर्मयज्ञ में खर्च कर स्वामी जी को गुरुदीक्षा दिलवाई| महाराज श्री बद्रीधाम से नंगे पांव जैसलमेर जिले के रुणीचा गांव पहुंचे जो बाबा रामदेव भगवान का जन्म स्थान है तथा वहां भव्य मंदिर बना हुआ है| भाद्र शुक्ल 10 को वहां मेला लगता है, जिसमें मारवाड़ व गुजरात के लगभग सभी वर्गों के लोग आते हैं| बाबा रामदेव के प्रति मारवाड़ व गुजरात के निवासियों की अगाध श्रद्धा है| रुणीचा का आधुनिक नाम ‘रामदेवरा’ है| रामदेवरा नाम से रेलवे व बस स्टेशन भी है| इसके लिए जोधपुर से जैसलमेर मार्ग पर रेल चलती है| रामदेवरा से महाराज श्री अपनी जन्म स्थली गांव खिन्दाकौर पहुंचकर एक स्थान का चयन कर वहां रामदेव जी की तस्वीर लगाकर पूजा-अर्चना की और जोधपुर पहुंचे| जोधपुर पहुंचकर उन्होंने अपने निवास स्थान के बाहर जोधपुर दरबार साहब के बंगले राईकाबाग पैलेस के पास एक झोपड़ी बनाकर नियमित रूप ध्यान करने लगे ओ संकीर्तन करने लगे| कुछ दिनों बाद आप पर बाबा रामदेव की असीम कृपा हुई और साक्षात दर्शन हुए और उन्हें चमत्कार सिद्धि की प्राप्ति हुई| उनके द्वारा वितरित भभूत से लूले-लंगड़े-अपंग स्वास्थ्य लाभ करने लगे, अंधो को रोशनी मिलने लगी| आप के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर परिजन व आसपास रहने वाले लोग क्रुद्ध हुए| ईषर्या-द्वेष में उन्होंने इनके घासफूस से बनी झोपड़ी में आग लगा दी और तरह-तरह की यातना देने लगे| परंतु तपस्वी सन्त महाराज श्री से उससे विचलित नहीं हुए| वे कुछ दिन शामियाना (टेंट) लगाकर अपना धार्मिक जीवन यापन करने लगे| एक दिन उनकी बात सुनकर मारवाड़ के धनी स्वर्गीय उमेश सिंह जी की महारानी भटियाणी जी ने उनके दर्शन किये वेलंबे समय से लकवे से पीड़ित थी| महाराज श्री के भभूत व झाड़-फूंक से उनके स्वास्थ्य में लाभ होने लगा, फलस्वरुप उनके चमत्कार से प्रभावित होकर उन्होंने महाराज को 50×50 का प्लॉट व 3000 रूपये की राशि मंदिर निर्माण हेतु भेंट की| चमत्कार से जो भेंट-पूजा आती उसे उन्होंने उक्त भूमि पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया| बाद में जोधपुर के वर्तमान महाराजा गजसिंहजी जो राज्यसभा के सदस्य भी है, उनको बाबा रामदेव की कृपा से पुत्र (महाराज कुँवर) की प्राप्ति हुई, जिससे राजघराने की अपार श्रद्धा अचलानन्द गिरी जी महाराज के प्रति हो गई और महाराज अचलानन्द गिरी जी को भी उसी प्रकार राजघराने का सम्मान मिला हुआ है जैसा वर्षों पूर्व भगत सिंह जी को मिला हुआ था|
मंदिर निर्माण के पश्चात महाराज अचलानन्द गिरी जी ने रामदेव जी की युगल जोड़ी की प्रतिमा लगाने का दृढ़ निश्चित किया तो भक्तों ने महाराज श्री का ध्यान उस किवदन्ती की ओर आकृष्ट किया, जिसमें बताया गया है कि रामदेव जी की युगल मूर्ति रानी नेतल देवी के साथ लगाने वाला मूर्तिकार के प्राण-प्रतिष्ठा करने तक स्वर्गवास हो जाता है| इस किवदन्ती की बिना परवाह किए ही महाराज श्री ने यह संकल्प लिया कि जब तक में बाबा रामदेवजी की युगल मूर्ति स्थापित नहीं करूंगा तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं कहूंगा और मुझे स्वर्गवासी ही क्यों ना होना पड़े, मैं युगल मूर्ति की स्थापना करूंगा ही| इसी संकल्प को पूरा करने के जयपुर के प्रसिद्ध मूर्तिकार उसे मिले परंतु मृत्यु भय की किवदन्ती के कारण कोई मूर्तिकार मूर्ति बनाने को तैयार नहीं हुआ| महाराज श्री ने सभी मूर्तिकारों से भेंट कर मूर्ति बनाने का अनुरोध किया परंतु बड़ी मुश्किल से एक मूर्तिकार मिला, उसने मूर्ति बनाने की मुँहमांगी कीमत के बतौर 21000 रूपये मांगे| महाराज श्री ने स्वीकृति दे दी, परन्तु मूर्ति 3 बार खण्डित हो गई| मूर्तिकार व महाराज दोनों इससे निराश हो गए, परन्तु महाराज श्री ने हिम्मत नहीं हारी, उन्होंने मूर्तिकार के यहाँ सात दिन तक मूर्ति बनाने के लिए अखंड ज्योति जलाकर हवन व कीर्तन किया| तब कहीं जाकर मूर्ति बनकर तैयार हुई| भक्तों द्वारा बताई गई किवदन्ती सत्य प्रमाणित हुई, जब मूर्ति कि प्राण-प्रतिष्ठा उत्सव पर मूर्तिकार जयपुर से जोधपुर आ रहा था तब मूर्तिकार की दुर्घटना में मृत्यु हो गई| महाराज श्री सच्ची लगन, तपस्या व ईश्वर कृपा से अमर हो गए और उनका संकल्प पूरा हो गया| भारतवर्ष में बाबा रामदेव के कई मंदिर है, लेकिन युगल मूर्ति के दर्शन के लिए भक्तों को जोधपुर आना पड़ता है| इस मंदिर की दूसरी विशेषता यह है कि मूर्ति की स्थापना से ही निरंतर अखंड ज्योति प्रज्वलित है तथा अन्नक्षेत्र निरंतर चल रहा है|
जोधपुर स्थित इस मंदिर में वर्ष में तीन बार विशेष आयोजन होते हैं| भाद्रपद शुक्ला 2 से 11 तक एवं चैत्र शुक्ला 2 से 11 तक अखंड सप्ताह हरिकीर्तन व हवन का कार्यक्रम संचालित होता है तथा कार्तिक शुक्ला द्वितीया को अन्नकूट प्रतिवर्ष होता है और राजभोग, बालभोग, छप्पनभोग श्री रामदेव जी की युगल जोड़ी के भोग लगता है| यहां कई दु:खियों के दु:खों का निवारण होता है| बाबा रामदेव की कृपा से यहां दूर-दूर से यात्री दर्शन करने आते हैं, आसाम, बंगाल, बेंगलुरु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, नेपाल से अधिक संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं| उनके लिए एक बड़ी धर्मशाला का निर्माण भी महाराज ने करवाया है| यहां नि:शुल्क भोजन व ठहरने की व्यवस्था है|
महाराज श्री अपनी जन्मस्थली के प्रति बहुत चिंतित थे, क्योंकि उनकी जन्मस्थली गांव खिन्दाकौर जोधपुर जिले का सर्वाधिक पिछड़ा गांव था| वहां पीने के पानी की भयंकर समस्या थी, स्कूल बहुत दूरी पर थी, कोई चिकला चिकित्सालय नहीं था| दंत कथा के कारण पीपल का वृक्ष उस गांव में नहीं लगाया जाता था| एक भी मंदिर नहीं था, महाराज श्री ने गांव का कायापलट कर रख दिया| बाबा रामदेव की कृपा से उनके बताए व अनुष्ठित स्थान पर खोदे हुए कुएं से अपार जल की धारा प्रस्फुटित हुई, जहां पीने का पानी मुहैया नहीं था अब वहां बगीचे लहलहा रहे हैं| पीपल के वृक्ष लगाकर गांव को हरा-भरा कर दिया गया| अस्पताल व स्कूल भवन का निर्माण करवाया तथा रामदेव जी का एक भव्य मंदिर का निर्माण भी करवाया गया| चैत्र शुक्ला द्वितीया सम्वत 2041 को वहां श्री रामदेवजी, हरजी भाटी एवं डाली बाई की मूर्ति स्थापित की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई, जहां आज भी प्रतिदिन धूप और आरती होती है|
महाराज श्री ने आगोलाई में सैनजी के मंदिर का निर्माण करवाया एवं मूर्ति की स्थापना की| गांव बालोद जिला दुर्ग (मध्य प्रदेश) में आपने रामदेव जी का मंदिर एवं सत्संग भवन बनवाया| जामनगर (गुजरात) में उध्योग नगर में भी रामदेव जी का मंदिर बनवाया| राजस्थान के नागौर जिले के गांव पांचौड़ी में भी सैनजी का मंदिर बनवाया एवं जन सहयोग से सैन जयंती समारोह आरंभ करवाया| जोधपुर में सैनजी के मंदिर व छात्रावास के कमरों का निर्माण करवाया| वे समाज हित में सदैव आर्थिक सहयोग देते रहते हैं| महाराज श्री की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं धर्म में गहरी रुचि है| स्कूल भवन निर्माण, अस्पताल निर्माण व मंदिर निर्माण में उनका योगदान व आशीर्वाद सैन समाज के साथ तो है ही सभी वर्गों व जातियों को भी प्रेरणा देते रहते हैं|
वे जो उपदेश देते हैं वे खुद उस पर अमल करते हैं| स्वादिष्ट भोजन व तड़क-भड़क के तथा सामाजिक कुरीतियों के वे प्रबल विरोधी हैं| उनकी मान्यता है कि स्वादिष्ट भोजन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ही इसको प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त आय की आवश्यकता रहती है, जिससे भ्रष्टाचार बढ़ता है व तड़क-भड़क व्याभिचार व कुरीतियों को बढ़ाता है| यह प्रवचन में कहते हैं कि सबका आदर करो, घास की तरह नर्म रहो और पेड़ की तरह धीरजवान बनो तथा संकीर्तन करो| धर्म में ध्यान लगाओ, इससे शांति मिलेगी और सब दु:ख दूर होंगे| आज के युग में उनके उपदेश अत्यंत उपयोगी हैं| स्वामी बाल ब्रह्मचारी हैं| जब से आप ने सन्यास लिया तब से आपने अन्न का परित्याग कर दिया| आप केवल फलाहार करते हैं तथा धरती पर सोते हैं, तकिया नहीं लगाते हैं| सैन समाज का अहोभाग्य है कि शताब्दियों बाद एक तेजस्वी, त्यागी व सिद्ध पुरुष ने भारत की धरती पर जन्म लिया है और मानवता के उद्धार के लिए कृत संकल्प है| ऐसे महापुरुष की खोज अनुराग बापू ने की है|
साभार प्रस्तुति – डॉक्टर देवी लाल पंवार, जोधपुर
सैन करवट (मासिक)
अंक 1, वर्ष-8, सयुक्तांक जुलाई से अगस्त 1992, पृष्ठ 12-15