सैनाचार्य वचनामृत

          मनुष्य जीवन में कर्म की संस्कृति को ही मान्यता है, केवल इच्छा रखने से जीवन में लक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं| मन मस्तिष्क में प्रभावित इच्छाशक्ति की संतुष्टि के लिए कर्म संस्कृति के भाव को स्वीकारना ही होता है| कर्म निवृत्ति का जीवन आलस्य एवं परमार्थ का जीवन है| जब तक इस शरीर में प्राण वायु है, तब तक मनुष्य को अपने कर्म से परहेज नहीं करना चाहिए| आपका अच्छा सोचना, मनन करना, चिंतन करना, वार्ता करना आदि ही पर्याप्त नहीं है, अपितु प्रत्यक्ष उपलब्धि के लिए मानसिक चिंतन के साथ-साथ शारीरिक ऊर्जा को भी सक्रियता प्रदान करना अति आवश्यक है| सन्यास युक्त जीवन में भी सन्यासी के धर्म एवं कर्म को सर्वोच्चता देनी होती है| वैराग्यता का जीवन भी कर्म मुक्ति का संदेश नहीं देता है| मनुष्य इस जगत में अपनी लंबी आयु के कारण याद नहीं किया जाता है, बल्कि उसके कर्मो एवं श्रेष्ठता के लिए संसार उसका स्मरण करता है| शंकराचार्य जैसे महापुरुषों को यद्यपि छोटा सा जीवन मिला, फिर भी इतिहास में इनके कर्मों ने इनको अमरता प्रदान कर दी| कर्म संस्कृति की महिमा अपरंपार है, मनुष्य को जीवन के हर दौर में कर्म स्वीकृति का ही जीवन जीना चाहिए| ईश्वर उन लोगों को कभी भी मदद नहीं करता, जो केवल भाग्य भरोसे जीता है|

– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत 

          गुरु दीक्षा का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष को गुरु बनाकर आस्था प्रकटीरण नहीं है,अपितु साधक द्वारा गुरदीक्षा संस्कार को अंगीकृत कर स्वयं को अपने सांसारिक जीवन में ही परमात्मा शरणम हेतु समर्पित करना है| मूलतः यह शरीर तो संसार का है| इस शरीर को पुष्पित एवं फलित होने के उपारानत इसी दिन दुनिया में पंचतत्व में विलीन होना है, लेकिन आत्मा इस संसार की विषय वस्तु नहीं है, इसका संबंध तो सीधा परमात्मा के साथ ही है|
          भारत राष्ट्र की श्रेष्ठ परंपराओं में हर वर्ष आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को पूरे देश में गुरु पूर्णिमा उत्सव के रूप में मनाया जाता है| यह शुभ अवसर परमात्मा शरणम का श्रेष्ठ मुहूर्त अपने देश, धर्म एवं समाज में स्वीकृत है| आत्मा को तो अंततः परमात्मा में विलीन होना ही है, लेकिन इसके लिए हम मनुष्य अपनी मृत्यु तक इंतजार क्यों करते हैं? हम सांसारिक एवं गृहस्थ धर्म में ही यदि स्वयं को परमात्मा शरण में समर्पित कर दे तो इससेे अधिक प्रतिष्ठित अन्य कर्म हो ही नहीं सकता|
          परमात्मा शरण के मार्ग का पथिक अधिकार पूर्वक कह सकता है कि “परमात्मा मेरा है मैं जो कुछ करता एवं कहता हूँ, उसके लिए मुझे परमात्मा की आज्ञा है” ऐसा विश्वास भाव ही गुरु शिष्य के संबंधों की अकाट्यता का प्रमाण है|

– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत

          इस सृष्टि पर व्यक्ति का जन्म केवल परमात्मा द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलते हुए ईशवरीय कार्य करने के लिए ही होता है| मतिभ्रम एवं स्वार्थ के वशीभूत होकर प्रदत ईशवरीय सेवा से ऐसे व्यक्ति विमुख हो जाते हैं, जिन पर परमात्मा का कृपा भाव नहीं होता है| जीवन में श्रेष्ठ मार्ग पर अडिग रहने के लिए मात्र रास्ता यह रह जाता है कि संकल्प के साथ अपने कर्तव्य को परिपूर्ण करना ही उच्च प्राथमिकता होना चाहिये| पृथ्वी पर हर व्यक्ति अपनी पैदाईश के साथ परमात्मा का कार्य करने की योग्यता रखता हो, ऐसा आवश्यक एवं संभव नहीं है| संकल्पावन व्यक्ति ही ईशवरीय कार्य करने के लिए पात्र होता है| पात्रता किसी भी व्यक्ति को सहज नहीं मिल जाती है, इसे प्राप्त करने के लिए निश्चछल एवं सर्वकल्याण की भावना रखते हुए सतत अभ्यास की आवश्यकता होती है| श्रेष्ठ कार्य करने का प्रयास नहीं अपितु अभ्यास यदि बन जाता है तो ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठता के अतिरिक्त अन्य विचार मन-मस्तिष्क में लाता ही नहीं है| सब तरह से परमात्मा को समर्पित व्यक्तित्व सदैव प्रसनं भाव से रहने वाला होता है| कोई भी परिस्थिति उसे हतास अथवा निराश नहीं कर कर सकती है| ऐसे व्यक्ति के हित हित अहित की सब तरह से चिंता एवं चिंतन करने वाला परमात्मा ही है| सतत प्रयास एवं सोच ऐसा रखना चाहिए कि ‘तेरा तुझको अर्पण, क्या लोग मेरा’ इस तरह का फक्कडपन अंदाज रखने वाला व्यक्ति कभी भी अपने मार्ग पर विचलित नहीं होता है तथा सदैव ईश्वरीय कार्य के प्रति समर्पित रहता है|

– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत

– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत

 

– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत