एक परिचय : जगतगुरु परमपूज्य सैनाचार्य श्री अचलानन्दजी महाराज
आदिकाल से सविता नाभिक देव ने जो परंपरा प्रारंभ की जिसका इतिहास साक्षी है, अनेक युगपु रुष दिए और ऐसा कोई स्थान काल एवं समाज नहीं है| जहाँ सैन समाज की अहम भूमिका ना हो, पग-पग पर त्याग बलिदान एवं समर्पण के साथ सेवारत सैन समाज ने पाईणी से आचार्य मुरा-पुत्र चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त, सन्त शिरोमणि से भक्त, पन्ना दाई जैसी बलिदान माँ और कर्म के नाम पर जाति निर्धारण करें तो वायु पुत्र हनुमान, अंगद दिए हैं| भारत का कण-कण जब आतंक से ग्रसित था, पल-पल जहां धर्मान्द्रता से ग्रसित या तब ज्ञान की सूर्य की ग्रहण लग गया हो, ऐसे काल में स्वामी रामानन्दजी ने पुनः वसुंधरा पर रामराज्य की स्थापना का बीड़ा उठाया, तब उनके बारह यशस्वी शिष्यों ने गांव-गांव और डगर डगर, चौपाल से लेकर राजमहल तक अज्ञान, अंधविश्वास और असमानता के विरुद्ध जन-जागरण कर सोये हुए भारतीय सैन समाज को जगाया| उनकी गद्दी 700 वर्षो से रिक्त थी, उसे जगतगुरु श्री रामनरेशाचार्यजी ने तपस्वी साधक सिद्ध श्री अचलानन्दजी महाराज को विराजित कर पुनः सैन जी को लाये|
सन्त कबीर की फक्कड़ स्वभाव, सन्त सैन जी की सन्त सेवा साधना एवं पीपाजी के चमत्कारों से परिपूर्ण जीवन का कहीं संगम है, तो अचलानन्दजी महाराज में| बाल्यकाल से ही भक्ति एवं सन्त सेवा में लगे महाराज श्री का जन्म 30 अप्रैल 1953 को खिन्दाकौर (जोधपुर) में हुआ था| आपके पिता स्वर्गीय श्री राजूरामजी एवं माता का नाम कुसुम्भी बाई है, जन्म के साथ ही अनेक महापुरुषों की भांति अपने पिता को खोना पड़ा| आठवीं की परीक्षा पास करने पर आगे अध्ययन हेतु जोधपुर भेजा गया, वहां वे शिक्षा के बजाय धर्म स्थापन में लग गए और एक दिन बाबा रामदेवरा के लिए निकल पड़े, रास्ते में रामानन्दजी महाराज की जोशीमठ में सन्यास ग्रहण कर लिया|
उत्तर भारत ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के कोने-कोने में धीरे-धीरे आपका यश फैलने लगा| आज उन्हें सारे भारत में सिद्ध सन्त के रूप में पहचाना जाने लगा है| दूर-दूर से यात्रीगण अपने दैहिक, भौतिक एवं अन्य दु:खों को लेकर आने लगे और रामदेवजी की असीम कृपा के साथ लगाने का संकल्प सन्तापों मुक्त होकर जय-जयकार करते जाने लगे, महाराज श्री ने सारी मान्यताओं को तोड़ते हुए रामदेवजी की युगल मूर्ति रानी नेतल देवी के साथ लगाने का संकल्प किया और कठिन साधना, असीम भक्ति कर एक अनूठा मंदिर बनवाया जो सारे देश में अपनी अलग पहचान रखता है| तब से आज तक युगल मूर्ति के दर्शन हेतु आपके मंगल-मय मंदिर में दर्शन करने हजारों लोग लगातार चल रहे अन्नक्षेत्र एवं अखंड ज्योति प्रतिदिन हजारों भक्तगण ले रहे हैं| सैन समाज की प्रकृति अवरुद्ध होने में यह एक प्रमुख कारण रहा कि सैना के बाद उस उनका स्थान तो दूर उनके बताए रास्ते, शिक्षा एवं व्यवस्था पर समय के साथ गर्त चढ़ती चली गई और सैन समाज अंधकार में भटकता रहा, युग-दृष्टा रामानन्दजी की गद्दी पर विराजमान श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज ने इसे महसूस किया एवं सिंहस्थ के पर्व पर बने अभूतपूर्व धार्मिक वातावरण में सदियों से चली आ रही इस कमी को भी अचलानन्दजी महाराज को सैनाचार्य की गद्दी पर बिठा कर उनके हाथ में सैन समाज का भविष्य सौंप दिया| सैनाचार्य के कठिनतम दायित्व के साथ सदियों से शोषित, अशिक्षित, अभावों के बीच रहे सैन समाज को जहां उन्हें प्रगति की राह पर लगाना है, वहीं स्वामी रामानन्दजी एवं सैनजी के आदर्शों हेतु समाजों को जोड़ना है|
सैनाचार्य स्वामी अचलानन्दजी महाराज के पद ग्रहण के बाद से सैन समाज को बीते सालों में आध्यात्मिक रूप से स्थापित कर आज देश के प्रमुख संतों में सैनाचार्यजी महाराज का नाम श्रध्दा से लिया जाता है| महाराज ने हरिव्दार, इलाहाबाद, नासिक, उज्जैन में सन्त शिविर लगाकर अन्नक्षेत्र का संचालन किया| जिससे धार्मिक क्षेत्र में सैन समाज के साथ बढ़ी| पूरे मानव जाति के कल्याण हेतु सैनाचार्य महाराज ने नशा मुक्त समाज का आह्वान किया| जिसका तेजी से सैन समाज के बंधु जगतगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज के ऋणी है, जिन्होंने हमें भोलेशंकर जैसे सैनाचार्य अचलानन्दाचार्य महाराज को सैन समाज का खेवनहार बताया है|
सादर प्रस्तुति – प्रकाशचंद्र जी नारडिया, बुलढाणा (महाराष्ट्र)
सैन दिशा कल्प
अंक 4 4, प्रारंभ वर्ष सितंबर-87, नवंबर-दिसंबर 2010, पृष्ठ 7-8