मनुष्य जीवन में कर्म की संस्कृति को ही मान्यता है, केवल इच्छा रखने से जीवन में लक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं| मन मस्तिष्क में प्रभावित इच्छाशक्ति की संतुष्टि के लिए कर्म संस्कृति के भाव को स्वीकारना ही होता है| कर्म निवृत्ति का जीवन आलस्य एवं परमार्थ का जीवन है| जब तक इस शरीर में प्राण वायु है, तब तक मनुष्य को अपने कर्म से परहेज नहीं करना चाहिए| आपका अच्छा सोचना, मनन करना, चिंतन करना, वार्ता करना आदि ही पर्याप्त नहीं है, अपितु प्रत्यक्ष उपलब्धि के लिए मानसिक चिंतन के साथ-साथ शारीरिक ऊर्जा को भी सक्रियता प्रदान करना अति आवश्यक है| सन्यास युक्त जीवन में भी सन्यासी के धर्म एवं कर्म को सर्वोच्चता देनी होती है| वैराग्यता का जीवन भी कर्म मुक्ति का संदेश नहीं देता है| मनुष्य इस जगत में अपनी लंबी आयु के कारण याद नहीं किया जाता है, बल्कि उसके कर्मो एवं श्रेष्ठता के लिए संसार उसका स्मरण करता है| शंकराचार्य जैसे महापुरुषों को यद्यपि छोटा सा जीवन मिला, फिर भी इतिहास में इनके कर्मों ने इनको अमरता प्रदान कर दी| कर्म संस्कृति की महिमा अपरंपार है, मनुष्य को जीवन के हर दौर में कर्म स्वीकृति का ही जीवन जीना चाहिए| ईश्वर उन लोगों को कभी भी मदद नहीं करता, जो केवल भाग्य भरोसे जीता है|

– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत