गुरु दीक्षा का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष को गुरु बनाकर आस्था प्रकटीरण नहीं है,अपितु साधक द्वारा गुरदीक्षा संस्कार को अंगीकृत कर स्वयं को अपने सांसारिक जीवन में ही परमात्मा शरणम हेतु समर्पित करना है| मूलतः यह शरीर तो संसार का है| इस शरीर को पुष्पित एवं फलित होने के उपारानत इसी दिन दुनिया में पंचतत्व में विलीन होना है, लेकिन आत्मा इस संसार की विषय वस्तु नहीं है, इसका संबंध तो सीधा परमात्मा के साथ ही है|
भारत राष्ट्र की श्रेष्ठ परंपराओं में हर वर्ष आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को पूरे देश में गुरु पूर्णिमा उत्सव के रूप में मनाया जाता है| यह शुभ अवसर परमात्मा शरणम का श्रेष्ठ मुहूर्त अपने देश, धर्म एवं समाज में स्वीकृत है| आत्मा को तो अंततः परमात्मा में विलीन होना ही है, लेकिन इसके लिए हम मनुष्य अपनी मृत्यु तक इंतजार क्यों करते हैं? हम सांसारिक एवं गृहस्थ धर्म में ही यदि स्वयं को परमात्मा शरण में समर्पित कर दे तो इससेे अधिक प्रतिष्ठित अन्य कर्म हो ही नहीं सकता|
परमात्मा शरण के मार्ग का पथिक अधिकार पूर्वक कह सकता है कि “परमात्मा मेरा है मैं जो कुछ करता एवं कहता हूँ, उसके लिए मुझे परमात्मा की आज्ञा है” ऐसा विश्वास भाव ही गुरु शिष्य के संबंधों की अकाट्यता का प्रमाण है|
– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत