भीष्मावतार सन्त सैनजी की जीवन कथा
श्री सैन का जन्म बृज के उत्तर में स्थित बांधवगढ़ नामक रियासत में विक्रम संवत 1357 में वैशाख मास कृष्ण पक्ष की द्वादशी रविवार को हुआ था| बालक सैन के पिता चन्द्रसेन बांधवगढ़ रियासत के राजा राजसिंह के राजखवास थे| माता पदमा बेहद सरल एवं धार्मिक स्वभाव की महिला थी| पंडितों के अनुसार बालक सैन की जन्म कुंडली एवं नक्षत्रों का योग अद्वितीय था| इसलिए उन्होंने भविष्य वाणी करते हुए कहा था कि यह बालक बड़ा होकर महान भक्त बनेगा| बालक सैन का लालन-पालन बड़े प्यार के साथ हुआ| कहावत है “पूत के पग पालने ही दिख जाते हैं|” एक बार जब माता स्नान कराने के उपरांत बालक के वस्त्र लेने हेतु अंदर गई तो इसी बीच श्री सैन ने अपने संपूर्ण शरीर पर राख मल ली|
ऐसी ही दूसरी घटना में बालक सैन अचानक घर से गायब हो गए बाद में एक सिद्ध बाबा (कहा जाता है स्वयं ऋषि दुर्वाशा) उन्हें घर पर लाये और व्याकुल माता-पिता को बताया कि- हे चन्द्रसेन तू बड़ा ही भाग्यवान है, जो तुम्हारे घर ऐसा पुत्र रत्न पैदा हुआ| यह बालक जंगल में शेर के सामने निर्भय खड़ा अपना परिचय अखंड ब्रह्मचारी भीष्म के रूप में दे रहा था| ऋषि दुर्वाशा ने चन्द्रसेन को समझाते हुए कहा कि इस बालक का विवाह अवश्य रचाना ताकि यह बालक बड़ा होकर गृहस्थ में रहकर भक्ति, दया, दान, तप, निष्काम कर्म एवं साधु सम्मान की नई मिसाल जगत के सामने रख सके| इसके बाद साधु ने बालक सैन को राजा मौरध्वज व हरिश्चंद्र के तप, दान व धर्म पालन में सर्वस्व अर्पण करने की कहानियां सुनाई, जिसका अत्यधिक प्रभाव बालक सैन पर पड़ा जो उनके जीवन में हमें देखने को मिलता है|
दुर्वासा ने विधि सहित दी शिक्षा हित ठान| सैन कुंवर को शिष्य कर ऋषि ने किया पयान||
इसके बाद बालक सैन ईश्वर के ध्यान में लीन हो अपनी सुध-बुध खो बैठते थे और बार-बार उन्हें ईश्वर के अपने समीप होने का आभास होता था| माता-पिता पुत्र की यह दशा देखकर व्याकुल हो उठते, उन्हें भय था कि उनका इकलौता पुत्र सन्यासी ना बन जाये| बालक सैन को ईश्वर की आराधना के सिवाय कुछ भी अच्छा नहीं लगता था| धीरे-धीरे उनका मोह है घर-समाज से टूटता जा रहा था| एक बार उन्होंने वैराग्य की ठान जंगल में जाकर स्वयं को ईश्वर के ध्यान में लीन कर लिया| तब भगवान विष्णु ने उनकी अन्तरआत्मा में गृहस्थ में रहकर आदर्श जीवन व्यतीत करने का भाव जगाया और आशीर्वाद दिया कि जब गृहस्थ जीवन में तुम पर कोई विपत्ति आएगी तो मैं स्वयं आकर तुम्हारी सहायता करूंगा और तुम्हें लोक कल्याण का मार्ग दिखाऊंगा|
कमलापति की मूर्ति का टूट गया जब ध्यान| सहसा व्याकुल हो उठे कहां गए भगवान||
इसके बाद वे घर लौट कर आ गए घर पर देवालय की स्थापना कर नियमित पूजा-पाठ और माता पिता की सेवा करने लगे| 18 वर्ष की आयु में बसन्त पंचमी के शुभ दिन श्री सैन का विवाह गजरादे के साथ धूमधाम से संपन्न हुआ| जैसा नर वैसी ही नारी- सरल एवं पतिकर्मों की सहभागिनी| दोनों नर-नारी प्रेमपूर्वक गृहस्थ चलाते, साधु-संतों की सेवा करते और ईश्वर की वंदना में लीन रहते|
अचानक माता-पिता की मृत्यु के बाद गृहस्थ का सारा भार सैन के कंधों पर आ पड़ा, वे नियमित रूप से पिता के स्थान पर राजसेवा में जाने लगे| धीरे-धीरे सैन की प्रभु भक्ति की कीर्ति चारों तरफ से फैलने लगी| एक दिन अचानक वैष्णव धर्म के प्रवर्तक रामानंदजी अपने कुछ शिष्यों सहित बांधवगढ़ पधारे, श्री सैन के लिए मानो स्वयं भगवान आये हो| वे दौड़कर उनके चरणों में गिर पड़े और सेवा में स्वीकार करने की विनती की| श्री रामानंद जी ने उन्हें धर्म सेवा ज्ञान का उपदेश दिया एवं अपने 12 प्रमुख शिष्य में स्थान दिया|
नियमित राजमहल में राजा की सेवा में जाने के बाद भी भक्त सैन पर वहां के भोग विलास भरे जीवन का तनिक भी प्रभाव नहीं था| वह घर आकर फिर ईश्वर भक्ति एवं ज्ञान चर्चा में लग जाते, उन्होंने राजा से कभी किसी अमूल्य वस्तु का आग्रह नहीं किया, जितना मिला उसी में संतोष किया| अब उनकी आय का अधिकांश हिस्सा दान व साधु-संतों की सेवा में खर्च हो जाता था| अपने गुरु भाई कबीर के कुछ दोहे भी सैन के जीवन पर इतने सटीक बैठते हैं कि अन्य कहीं ऐसा उदाहरण मिलना दुर्लभ है|
साईं इतना दीजिए जा मे कुटुम समाय| मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय||
कबीर संगत साधु की बैग करीजै जाय| दुर्मति दूर गवाय सी, सुमति देसी बताय||
एक बार श्री सैनभक्त ईश वंदना में इतने तल्लीन हो गये कि उन्हें राजा की सेवा में जाने की सुध भी ना रही| बार-बार दूत भेजकर बुलाने पर भी जब सैन राजा की सेवा में नहीं पहुंचे तो राजा क्रोधित हो गया| राजा अपने सिपाहियों को सैन को सजा देने का आदेश सुनाने वाला ही था कि भगवान स्वयं सैन भक्त के रूप में उपस्थित हो गये और राजा से क्षमा याचना कर राजा की सेवा की|
जब श्री सैन का ध्यान भंग हुआ तो वे राजा की सेवा में पहुंचे और क्षमायाचना करने लगे| राजा आश्चर्यचकित हो गया और पहरेदारों ने भी देखा कि एक सैन भक्त अभी-अभी उल्टे पांव लौट आया है| तब राजा ने शंका प्रकट की और सैन को अपनी सत्यता प्रकट करने को कहा| श्री सैन भगवान की मूर्ति के सामने जाकर प्रेम के आंसू रोने लगे और प्रार्थना की कि हे प्रभु आप आए भी और मुझे दर्शन दिए बिना ही चले गये| अपने भक्त की सच्चे हृदय की आर्तनाद आज सुनकर भगवान विष्णु स्वयं शंख, चक्र और गदा सहित प्रकट हुए और अपने प्रिय भगत सिंह को असीम भक्ति और अमरकीर्ति का आशीर्वाद दिया| राजा को अपनी भूल का ज्ञान हुआ और वह श्री सैन के चरण पकड़ कर क्षमा याचना करने लगा| श्री सैन को गुरु पद से सम्मानित किया|
गृहस्थ एवं सन्यास के समायोजक भक्त शिरोमणि श्री सैन
आज भी भक्त शिरोमणि श्री सैन का जीवन समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है| गृहस्थ में रहकर उन्होंने धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारों पुरुषार्थ की प्राप्ति का जो अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र मिलना दुर्लभ है| उनके जीवन से हम यह सीख सकते हैं कि मानव के दैनिक कर्म और जातीय कर्म मोक्ष और ज्ञान प्राप्ति में कभी बाधक नहीं बनते हैं| श्री सैन ने गृहस्थाश्रम की सन्यास आश्रम पर श्रेष्ठता प्रमाणित की ओर वैष्णव धर्म के मूल सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारकर व्यवहारिक रूप प्रदान किया| उनके समकालीन संतों ने जहां दोहों, वाणियों से धर्म परिवर्तन का चक्र चलाया, जिनमें रैदास, नामदेव, पीपा, कबीर इत्यादि प्रमुख हैं, किंतु सैन जी का जीवन उन वाणियों की जीवन्त प्रतिमूर्ति हैं|
भक्त शिरोमणि श्री सैन की जीवन लीला युगों तक समाज में प्रासंगिक बनी रहे रहेगी और हिंदूवादी विचारधारा में उनका योगदान अमूल्य और चिंतन रहेगा| धर्म, कर्म, दया, दान, साधु सत्कार एवं संयक की प्रतिमूर्ति, ईश्वर के अनूठे भक्त को कोटि-कोटि प्रणाम|
प्रभु भक्ति श्री सैन की दे मानव संदेश| कर्म प्रधान है, जाति नहीं, इसमें नहीं अन्देश||
साभार संकलन –
सैन विकास (पाक्षिक)