सन्त सैनजी महाराज का प्रभु प्रेम
‘प्रेम के बस नृप सेवा कीन्ही, आप बने हरी नाई’
‘सूर कूर इहि लायक नाहीं, कह लगीकरौ बढ़ाई’
सन्त कवि सूरदासजी ने इस अभिव्यक्ति के द्वारा सन्त सैनजी महाराज के प्रभु प्रेम की महिमा का वर्णन किया है| भावना और भक्ति प्रधान यह भारत देश अतीत से सती और संतो की तपस्थली रहा है| एक और यहां की भूमि पर स्वयं नारायण नर लीला कर पृथ्वी का भार उतारने के लिए अवतरित हुए, वहीं दूसरी ओर विभिन्न जाति व धर्मों में परम परमात्मा के अनन्य भक्त हुए जिन्होंने परमात्मा की भक्ति में अपना सर्वस्व समर्पण कर ईश्वर से साक्षात्कार किया|
रामचरित मानस में गोस्वामी जी ने लिखा है कि वह देश धन्य है जहां देव नदी गंगाजी बहती है, वह स्त्री धन्य है जो पतिव्रत धर्म का पालन करती है, वह धन धन्य है जिसकी पहली गति (दान) होती है, वह बुद्धि धन्य है जो पुण्य कर्म में लगी है, वह घड़ी धन्य है जिसमें सत्संग होता है और भगवान शिव कहते हैं-
सो कुल धन्य उमा सुन, जगत पूज्य सो पुनीत श्री रघुवीर परायन, जहि नर उपज विनीत
अर्थात वह कुल भी धन्य है और जगत में पूजनीय है जिसमें परमात्मा के अनन्य भक्त जन्म लेते हैं| ऐसे ही भगवत भक्त सैन समाज में अवतरित हुए हैं, जिन्होंने प्रेम और भक्ति के माध्यम से परमात्मा को रिझाया तथा जिनके लिए भगवान ने स्वयं सैनजी महाराज का स्वरूप बनाकर राजा का क्षौर कार्य किया| जिसको एक भक्त ने भाव में व्यक्त किया है- भक्त ने ऐसा डाला फंदा, आप बने हरि नाई नन्दा|
आपका जन्म वैशाख बदी द्वादशी, विक्रम संवत 1357 को बांधवगढ़ (मध्य प्रदेश) में हुआ था| संपूर्ण भारतवर्ष में इसी दिन सैन जयंती मनाई जाती है| आप बांधवगढ़ नरेश वीरसिंह के सेवक थे| एक बार संतों की सेवा, भजन, कीर्तन, सत्संग में इतने तन्मय हुए कि राजदरबार में सेवा कार्य के लिए जाना ही भूल गए तब भगवान सैन का रूप धारण कर राजा की सेवा करने पहुंच गए| भगवान के कर-कमलों के स्पर्श से राजा को सुख व आनन्द अनुभव हुआ| बाद में जब सैनजी राजा की सेवा के लिए पहुंचे और सन्त मंडली मिल जाने की की बात कही तो राजा ने पूर्व में आए सैन के रूप में भगवान का स्वरूप पहचान लिया| दोनों ने एक-दूसरे का जी भर कर आलिंगन किया| राजा, सैनजी के चरणों में गिर पड़े| राजा वीरसिंह ने कहा राज परिवार आपके परिवार का जन्म-जन्म तक उपकार मानता रहेगा| भगवान ने आपके लिए ही हमें दर्शन देकर हमारे असंख्य पापों का अंत किया| उन्होंने सैनजी का शिष्यत्व स्वीकार किया| भगवान को उनके लिए कष्ट उठाना पड़ा इससे सैनजी महाराज के मन में दु:ख हुआ| बांधवगढ़ नरेश की राजाराम की सेवा में भी आप रहे, जिसका उल्लेख राम रसिकावली में इस प्रकार किया है –
बांधवगढ़ पूरव जो गायो | सैन नाम नापित तह जायो |
ताकि रहे सदा यह रीति | करते रहे सानू से प्रीति |
तह को राजाराम बघेला | बरन्यो जेहि कबीर को चेला |
करे सदा तिन की सेवकाई | मुकुर दिखावे तेल लगाई |
सैनजी महाराज की अटूट भक्ति से हुए इस चमत्कार से प्रभावित उन्हें राजगुरु पद देकर जो सम्मान दिया, उसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार की गई –
उस दिन सैन ही मिले महिपा | सिंहासन बैठाई समीपा |
गुरु सरिस पूजन किया | अतिसय आनन्द दाई|
साधुन सब सेवे नगर | दिन डोढ़ी पिटवाई |
राजाराम साधु सेवकाई करन लगे रोज चितलाई |
सन्त सैनजी महाराज की भक्ति का उल्लेख विभिन्न धर्म ग्रंथों, पदों व छन्द, सोरठों में सैनजी महाराज की प्रभु भक्ति का वर्णन मिलता है| गुरु ग्रंथ साहिब में इस प्रकार उल्लेख है-
धूप दीप घृत साजी आरती | जाऊ लरने कमलापति|
“मंगला- हरमंगला” नित मंगल राजाराम राय को
उत्तर दियरा निर्मल बाती| तू ही निरंजन कमलापति
राम भगति रामानंद जाने | पूरन परमानन्द बखाने
मदन मूरती भई तारी गोविन्दे | सैन सजे परमानन्दे|
सन्त सैनजी का हिन्दी पद धूलिया (महाराष्ट्र) के समर्थ वागदेवता मंदिर की हस्त लिखित पोथी में भी प्राप्त है जो इस प्रकार है-
विदित बात जग जानिये, हरि भये सहायक सैन के
प्रभु दास के काज रूप नापित कीनो
छिप्र छुरहरी गही पानि दरपन तह लीनौ
ताद्रश हो तीहि काल भूप के तेल लगायो
उलटी राव भयो शिष्य, प्रगट परचो जब पायो
स्याम रात सन्मुख सदा ज्यों बच्चा हित धेन के
विदित बात जग जानिये, हरि भये सहायक सैन के
सैन जी महाराज की भगवत भक्ति का उल्लेख करते हुए एक भक्त ने तो परमात्मा को इन शब्दों में उलाहना भी दिया है-
सैन भगत थारो कई सुसरो लागे, जण को कारज सारयो रे
बगल कछौनी लेकर तूने , नृप को शीश संवारयों रे
ऐजी तुम्हारा नटवर नागरिया भक्ता रे क्यों नहीं आयो रे
सैन जी महाराज गुरु भक्ति महिमा का उल्लेख इन पंक्तियों के द्वारा किया गया है-
भगति के रंग में रंगाई, चुनर गुरुदेव ने ओढाई
या चुनर सैन भगत ने ओढ़ी, आप बने हरी नाई, चुनर गुरुदेव ने ओढाई
सन्त सैनजी महाराज के जीवन दर्शन से स्पष्ट है कि आप तत्कालीन समय के महान सन्त हुए हैं, जिन्होंने सैन समाज में जन्म लेकर पूरे भारत देश के सैन बंधुओं का गर्व से मस्तक ऊंचा उठाया है| आज भी संपूर्ण सन्त समाज में कोई व्यक्ति अपना परिचय “सैन” कहकर देता है तो अनायास ही उसे सैन भगत कहकर पुकारते हैं, यह सम्मान हमें सैनजी महाराज की अटूट भक्ति के कारण मिलता है| लगभग 717 वर्ष से अधिक व्यतीत हो गये किंतु आपकी भक्ति की पताका आज भी लहरा रही है|
साभार प्रस्तुति
महेश गेहलोद , मंदसौर (मध्यप्रदेश)
सैन परिचय (मासिक) वर्ष 34, अंक 11, अप्रैल 2011, पृष्ठ 5-6