आमजन सदैव अपनी प्रशंसा से खुश होता है, लेकिन ऐसा माहौल उसकी अपनी खामियों की पहचान का मार्ग अवरुद्ध कर देता है| अभ्यास तो ऐसा होना चाहिए कि अपने-पराये का भेद किये, अन्य़ो की श्रेष्ठताओं की प्रशंसा करो| जिस व्यक्ति की आप प्रशंसा कर रहे हैं, वो आपकी दृष्टि में स्तरीय नहीं है, लेकिन यदि उसका कार्य तथा व्यवहार श्रेष्ठ दिशा की ओर है तो उसकी प्रशंसा करने का अवसर आप अपने हाथ से ना जाने दें| आपकी प्रशंसा उसके लिए प्रेरणा बनेगी| केवल अपनों की ही प्रशंसा का भाव कालांतर में उसकी कार्य क्षमता को प्रतिकूल कर सकता है| अतः अपनापन उतना महत्व नहीं रखता है, जितना कार्य एवं उपलब्धियों की सृजनता|

          उत्तम पुरुष तो निंदा में भी प्रेरणा का भाव देखता है तथा निंदा करने वालों को हित चिंतक समझकर सदैव परमात्मा से यह प्रार्थना करता है कि वह मुझे सदैव सदमार्ग पर चलने के लिए चेतावनी देता रहे| प्रशंसकों पर तो भगवत कृपा होती ही है, साथ में आपके निंदक भी परमात्मा की दृष्टि में दया के पात्र बन जाते हैं| ध्यान रहे कि व्यक्ति स्वयं में श्रेष्ठ नहीं, अपितु उसका कार्य व्यवहार श्रेष्ठता की ओर होना चाहिए| केवल व्यक्ति प्रधान प्रशंसा तो एक तरह से चापलूसी है, अतः इस तरह के अवसर से दूरी बनाये रखो| आपको लगता है कि कोई कार्य, कोई विशेष वैयत्तिकता के साथ-साथ लोक दृष्टि से भी श्रेष्ठ परिणाम वाला है तो फिर आप उसकी अवश्य प्रशंसा करो|

– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत