सन्त सैनजी का जीवन परिचय
सैनजी महान व्यक्तित्व के धनी थे, सैनजी का युग अंधविश्वास, रूढ़िवाद एवं संकीर्ण जातिवाद का युग था, ऐसे युग में वे कमल की तरह खिले चारों ओर ज्ञान की सुरभि विकीर्ण की, जिसकी सुवास आज भी समाज को सुरभित कर रही है| संतों का जीवन सोए हुए समाज का पाथेय है| संतों की जीवनियों का अध्ययन निराशा में आशा का प्रकाश भरता है| सैनजी का जीवन भी हमारे लिए अनुपम पथ प्रदर्शक है| मौर्यजी द्वारा लिखित मराठी पुस्तक सन्त सैन में उनके अलौकिक बाल्यकाल का वर्णन किया है| उनका रूप अतीव सुंदर था| विस्तृत ललाट, हंसमुख वंदन और संपूर्ण स्वस्थ शरीर चारों ओर अपनी आभा बिखेरता था| उनकी माता सर्वगुण संपन्न तथा महान गुणों से विभूषित महिला थी| उनके पिता बांधवगढ़ नरेश के वक, सलाहकार, वैद्य और परामर्शदाता थे| सैनजी की बाल्यकाल से ही संगीतकला में विशेष रूचि थी| यह ज्ञान उन्हें माता-पिता द्वारा मिला था| किंतु धीरे-धीरे संतों की संगति से परिकृष्ट होता गया| उन्हीं के प्रयास से बांधवगढ़ में बालकों की संगीत मंडली बन गई| यह बाल कलाकार घर-घर जाकर प्रभु भक्ति से सबको सराबोर करते थे| राजमहल में भी उनका आवागमन होता था| राजपरिवार ने भी उनकी गतिविधियों से अत्यंत संतुष्ट था| इनके घर संतों का आवागमन होता रहता, रात्रि जागरण होते| सभी भाव-विभोर होकर प्रभु भक्ति का आनन्द लेते| उस समय के प्रसिद्ध सन्त रामानन्द सैन की गुरुभक्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुए, उन्होंने अत्यंत प्रेम से दीक्षा देकर सैनजी को अपना शिष्य बनाया| रामानन्दजी के आठ प्रमुख शिष्य थे| जिनमें कबीर, रैदास, सैन तथा धन्नाभक्त अधिक शिक्षित एवं प्रसिद्ध थे| सैनजी बचपन से ही अध्ययन प्रिय थे, उस युग में आज की तरह लिखित ग्रंथों का अभाव था| अधिकतर शिक्षण मौखिक ही चलता था| यह तरुण अवस्था में बांधवगढ़ छोड़कर पंढरपुर चले गये| वहीं इन्होंने मराठी भाषा का गहन अध्ययन किया| यह ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम और जनाबाई के प्रति अत्यंत श्रद्धा की भावना रखते थे| ज्ञानदेव की जन्म स्थान आलंदी की यात्राएं की तथा इन पर काव्य रचना भी की| इनके मराठी के अनेक अभंग प्रकाशित हो चुके हैं| साहित्यिक दृष्टि से उनकी भाषा अत्यंत शोष्ठव युक्त है| अधिकांश पद ईश्वर भक्ति पूर्ण है| उनमें विठ्ठल एवं एकमाई का वर्णन है| सत्संगति पर इन्होंने अत्यंत बल दिया है| समाजसुधार पर भी इन्होंने अनेक अभंग लिखे हैं| गुरु भक्ति इन में अटूट थी| रामानन्दजी के आदेश से ही वाराणसी जनपद में भक्ति धारा का प्रवाह प्रवाहित किया| गांव-गांव में इन्होंने प्रभुभक्ति की गंगा बहाई| मराठी के साथ-साथ हिंदी भाषा पर भी इनका अधिकार था| हिंदी और राजस्थानी में भी इन्होंने अनेक पद लिखे| भ्रमण की इनमें बचपन से ही रुचि थी| यह बनारस हरिद्वार होते हुए हिमगिरी की गोद में पहुंचे| इन्होंने बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, जमनोत्री की पैदल यात्रा की| आते समय पंजाब में रुके वहां की भाषा का अध्ययन किया| वहां से राजस्थान में यहां आबू, पुष्कर आदि स्थानों की यात्रा की| पुष्कर से यह धीरे-धीरे दक्षिण की ओर बढ़े| प्रौढ़ावस्था में यह पुन: बांधवगढ़ पहुंच गये| वहीं एक सच्चे कर्मयोगी की तरह भगवान की भक्ति में अपने अंतिम दिन बिताये, कहते हैं इनका अवसान संवत 1407 के आसपास छोटी आयु में ही हो गया|
साभार प्रस्तुति – रामधन रेणीवाल, कोलिया
सैन परिचय (मासिक) वर्ष 32, अंक 12, मई 2009, पृष्ठ 5