सन्त सैनजी का जीवन परिचय
भारतीय साहित्य के मध्ययुग में अनेक सन्त हुए, जिन्होंने अपनी भक्ति धारा से साहित्य का सिंचन किया| श्री सैनजी मराठी ,हिंदी और राजस्थानी में अनेक पदों की रचना की| आपने सबसे अधिक मराठी में अभंग लिखें, जिनकी संख्या लगभग दौ सौ पचास है| सैनजी अनेक ग्रंथों के आधार पर मध्यप्रदेश के बांधवगढ़ नामक स्थान पर पैदा हुये| प्राचीन ग्रंथों में कहीं आपके माता-पिता के नाम का उल्लेख नहीं है, किंतु पंडित रेवतीप्रसादजी द्वारा लिखित सैन चरिता में इनके पिता का नाम देवीदत्त तथा माता का नाम प्रेमकुंवर बाई बताया गया है| इनका जन्म 1357 में वैशाख कृष्ण पक्ष द्वादशी रविवार को हुआ था| इनकी धर्मपत्नी का नाम वीरम्मा था जो दक्षिण भारत के राज्यवेद्य की पुत्री थी|
यह बचपन में अत्यंत सुशील और मधुर स्वभाव के थे| बचपन में इन्होंने क्षौर कार्य का अभ्यास किया था, जिसमें अत्यंत निपुण थे| इन्होंने अपने आप अभंगों में लिखा है मेरा जन्म नापित के घर में हुआ है| मैं दिन में प्रहर अपना धंधा करता हूं| धंधा समाप्त करने के बाद स्नान करता हूं, फिर प्रभु के भजन में लग जाता हूं| एक बार काम बंद करने के बाद धोवटी के हाथ नहीं लगाता| इन्होंने अपने आप अभंगों में नाम जप, संकीर्तन और सत्संग पर बहुत बल दिया है| इन्होंने जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाने की पर बहुत ध्यान रखने को कहा है| सत्संग से इन्हें बहुत लगाव था, जिससे ये तीर्थों में भ्रमण करते हुए पंढरपुर पहुंचे| वहीं इन्होंने मराठी भाषा में लिखना शुरू किया| इन्होंने अपने अभंगो में महाराष्ट्र के संतों की बहुत आदर से वंदना की है| ज्ञानदेव के प्रति अत्यंत निष्ठा का भाव प्रकट किया है| ज्ञानदेव के जन्मस्थान अलकापुरी तथा उसके समीप बहने वाली नदी को श्रद्धा से याद किया है| आज भी महाराष्ट्र में सैनजी के अभंग बहुत प्रचलित है और वारकरी संप्रदाय में बहुत श्रद्धा से गाए जाते हैं| मराठी में इनकी रचना अधिक होने से यह महाराष्ट्र के पूज्य संतों में गिने जाते हैं| मराठी में इनकी अनेक जीवनियां भी उपलब्ध |है महाराष्ट्रीयन सन्त जनाबाई ने सैनजी को श्रेष्ठ सन्त बताया है तथा अन्य संतों ने भी इन की बहुत प्रशंसा की है|
जब यह तीर्थाटन करते हुए उत्तरी भारत में आए तो गुरु रामानन्दजी ने इन्हें प्रभावित किया| ये बांधवगढ़ के राजा की सेवा में थे तथा वही इन इनकी भक्ति से प्रभावित होकर प्रभु ने इनका रूप धारण करके राजा की सेवा की| राजा बहुत प्रभावित हुआ और इन्हें राजगुरु के पद पर प्रतिष्ठित किया| यह कथा मराठी और हिंदी दोनों परंपराओं में समान रूप से मिलती है| सैनजी रामानन्दजी के 12 प्रमुख शिष्यों में से एक थे| अधिकांश दलित समझी जाने वाली जातियों में से थे, इनमें सन्त कबीर, रैदास, धन्ना और पपीपा कवि भी थे और भक्त भी, यह सभी गृहस्थ थे| गृहस्थी का निर्वाह करते हुए प्रभु की भक्ति में लीन रहते थे| कबीर और रैदास ने तो अपने साहित्य में सैनजी के नाम का उल्लेख नहीं किया किंतु धूलिया के एक मंदिर में सैनजी के जीवन की एक पांडुलिपि मिली है, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि सैनजी कबीर और रैदास जी के समकालीन थे, सैनजी सन्त रामानन्दजी के शिष्य थे, इसके अनेक प्रमाण है| सिखों के गुरु ग्रंथ साहिब में इनका एक पद है जो निम्नलिखित है :-
धूप दीप धिप सजी आरती | बढ़ने जाऊँ कमलापति ||
मंगला हरि मंगला नितु मंगलु | सब राजा राईको ||
उत्तम दीयरा निर्मल बाती | तू निरंजन कमला पति ||
रामभक्ति रामानन्द जाने | पूरन परमानन्द बखाने ||
मदन मूर्ति में वारि गोविंदे | सैन भणै सुन परमानन्दे ||
उपरोक्त पद में ‘राम भक्ति रामानन्द जाने’ अर्थात राम की भक्ति रामानन्द ही जानते हैं| इससे प्रकट होता है कि वे अपने गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे, तभी उन्होंने रामानन्दजी को रामभक्ति का सच्चा अधिकारी बताया था| रामानन्द संप्रदाय के कुछ प्रमुख ग्रंथों में से भी सैनजी के गुरु रामानन्दजी होने के प्रमाण मिलते हैं| उन ग्रंथों में भक्तमाल प्रमुख है| जिसके रचियता नाभादासजी है तथा इसका रचनाकाल विक्रम संवत 1680 है| यह भक्तों की मणियों की माला है| नाभादासजी स्वयं रामानंदी वैष्णव थे तथा इनकी चौथी पीढ़ी के भक्त और कवि थे| भक्तमाल में रामानन्द जी के बारह प्रमुख शिष्यों में सैनजी का नाम बहुत आदर के साथ लिया है|
अगस्त्य संहिता भी एक सांप्रदायिक ग्रंथ है, इसमें रामानन्दजी को विष्णु का तथा सैनजी को भीष्म का अवतार बताया गया है| इस ग्रंथ ने भी सैनजी को रामानन्दजी का शिष्य माना है| प्रियादास जी की भक्ति रस बोधिनी तथा रीवा नरेश रघुराज सिंह जी द्वारा लिखी ‘भक्तमाल रसिकावली’ दोनों भक्तमाल की टिकाए है तथा इनमें भी सैनजी का नाम बहुत आदर से लिया गया है| सैनजी को रामानन्दजी का शिष्य बताया गया है तथा स्वयं प्रभु ने नापित का रूप धारण कर राजा की सेवा की उसका भी उल्लेख किया गया है| मीराबाई, सन्त कबीर और रैदास ने भी प्रभु सैनजी का रूप धारण करने की घटना का उल्लेख किया है| निम्न आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने सैनजी को रामानन्दजी का शिष्य बताया गया है, जिनका विवरण निम्नलिखित है :- श्री रामचंद्र शुक्ल – हिंदी साहित्य का इतिहास, परशुराम चतुर्वेदी – उत्तरी भारत की सन्त परंपरा, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी – हिंदी साहित्य की भूमिका|
इनके साथ–साथ रामखिलावन पांडे तथा गोरखपुर से निकलने वाले कल्याण मासिक के संपादक ने भी रामानन्दजी का शिष्य सैनजी को सिद्ध किया है| पूज्य गुरु रामानन्दजी ने अपने शिष्यों को ज्ञान और भक्ति के प्रचार के लिए भिन्न-भिन्न स्थानों पर भेजा था, उन्होंने सैनजी को काशी में राम भक्ति का प्रचार करने के लिए नियुक्त किया था| काशी जैसे विख्यात और विद्वानों के नगर में सैनजी का जाना यह सिद्ध करता है कि सैनजी अपने समय के विख्यात और प्रसिद्ध सन्त थे| प्रसिद्ध इतिहासकार विल्सन तथा रीवा नरेश महाराज रघुराजसिंहजी ने तो यह भी माना है कि सन्त सैनजी का वंशज अनेक पीढ़ियों तक बांधवगढ़ नरेशों के कुलगुरु रहे, पर ठोस प्रमाण किसी अन्य ग्रंथ में नहीं मिला है, हां काशी में सैनपुरा नाम का मोहल्ला तथा एक प्राचीन सैन मंदिर इस बात को सूचित कर रहे हैं कि सैनजी लंबे समय तक काशी में रहते थे|
अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सैनजी अपने काल के एक सन्त थे| इनका व्यक्तित्व प्रभावशाली था, जिससे राजगुरु के पद पर आसीन हुये| इनके चरित्र की सुगंध बहुत प्रभावशाली थी, जिसके कारण संपूर्ण भारत के नाभिक समाज को इन पर गर्व रहा| आज सात सौ वर्ष बाद भी इनकी जयंती गांव-गांव में मनाई जा रही है| विद्वतजनों से अपेक्षा है कि वे इनके साहित्य का बारीकी से अन्वेषण कर अनमोल ज्ञानकण जनसाधारण में वितरित करें|
साभार प्रस्तुति – रामधन रेणीवाल, कोलिया
सैन भक्तिपीठ संदेश (त्रैमासिक)
विशेषांक-नवसंवत्सर 2051,
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा, पृष्ठ 7-8