सन्त सैन - जीवन दर्शन
भारत भूमि अतीतकाल से ही सन्तो व ऋषि मुनियों की तपस्थली रही है यहां ऋषि परंपरा है तथा हमारे पूर्वज भी ऋषि-मुनि रहे हैं| यही कारण है कि सभी जाति/वर्गों में सन्त व भगवत भक्त हुए हैं, जिन्होंने अपनी अनन्य भक्ति के द्वारा ईश्वर से साक्षात्कार किया है| सन्त कबीर जुलाहा थे, रैदास चर्मकार थे, पीपाजी दर्जी थे, धना भक्त जाट थे इसके अतिरिक्त सूर, तुलसी, मीरा, दादू, पलटू, चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम आदि कई महान भक्त सन्त हुए हैं| इन्हीं सन्तो में से एक भक्त सैन समाज में भी हुए जो कालांतर में सैन सन्त सैनजी महाराज के नाम से विख्यात हुए|
पावन भूमि :- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी अर्थात जननी व जन्मभूमि स्वर्ग से महान है, किंतु जिस भूमि पर कोई भगवत भक्त जन्म लेता है, वहाँ का कण-कण और वायुमंडल भी पवित्र हो जाता है| तत्कालीन बघेलखंड रियासत में महाराज रामसिंह हुए हैं| इस रियासत की राजधानी बांधवगढ़ थी जो अब मध्य प्रदेश के रीवा जिले में है| यही वह पावन भूमि है, जहां सन्त सैनजी महाराज ने जन्म लिया|
जन्म :- सन्त सैनजी महाराज का जन्म बांधवगढ़ (मध्यप्रदेश) में वैशाख बदी द्वादशी विक्रम संवत 1357 में हुआ था| इसीलिए यह दिन सम्पूर्ण भारत में सैन जयंती के रूप में सैन समाज अपने कुल गुरु की जन्म जयंती के रूप में मनाता है|
धन्य कुल :- गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है – “सोकुल धन्य उमा सुन, जगत पूज्य सुपूनीत| श्री रघुवीर परायन, जेही नर उपज विनीत ||” वह कुल धन्य है और संसार में पूज्य है, जिसमें भगवत भक्त जन्म लेते हैं| सैनजी महाराज का जन्म नाई जाति में हुआ| इसलिए इस सेवाभावी वर्ग को आप जैसे सन्त के जन्म लेने का कारण उच्च कुल का दर्जा मिला है| जिसमें जन्म लेने वाले हर व्यक्ति को सैन भगत के नाम से संबोधित कर भारतीय समाज में सम्मान दिया जाता है|
धन्य माता-पिता :- जननी जने तो भगत जन, कै दाता कै सूर च अर्थात संसार में पुत्र हो तो परमात्मा का भक्त हो, दानी हो या देव पुरुष हो| धन्य है वे माता-पिता जिन्होंने सैनजी महाराज जैसे महान सन्त को जन्म दिया| सन्त सैनजी महाराज के व्यक्तित्व व कृतित्व कीर्ति फैली है व उनके माता-पिता के पुण्य का ही प्रभाव है| आपके पिता परम भगवत भक्त देवी दास जी थे व वह माता प्रेम कुंवर बाई थी, जो धार्मिक प्रवृत्ति की थी, इसी कारण आपको बाल्यकाल में ही सन्त सेवा, सत्संग व धार्मिक संस्कार पारिवारिक विरासत में मिले थे|
शिक्षा व संस्कार :- सैनजी महाराज की लौकिक शिक्षा सामान्य ही रही| जो शिक्षा मिली वह भी कठिन संघर्ष व अभावों में रहते हुए प्राप्त हुई, वही शिक्षा संस्कार बनकर आपको अध्यात्म की उत्कृष्ट शिखर तक ले गई तथा परमात्मा से साक्षात्कार कराया| इससे इस बात की पुष्टि हुई कि संघर्ष से मिली शिक्षा संस्कार बनती है एवं ऐश्वर्य से मिली शिक्षा अहंकार बनती है|
जीवन दर्शन :- सन्त सैनजी महाराज का जीवन सादगी व सरलता से ओतप्रोत था| आपने सेवा धर्म को अपनाया जो हमारे धर्म ग्रंथों में भक्तों का गुण बताया गया है| गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है “सब ते सेवक धर्म कठोरा” इस कठोर सेवा धर्म को आपने अपनाया तथा सन्त सेवा को ही ईश्वर की सेवा माना| सन्त परंपरा के प्रतिनिधि के रूप में इस धरा पर भी विचरते हैं| सन्तों की महिमा स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने उद्धवजी से अपने श्रीमुख से वर्णन की जो इस प्रकार है-
उद्धव हमें सन्त सदा अति प्यारे
भवसागर के केवट हैं ये, नैया लगाते किनारे
जब जब पाप बड़े भूमि पर, मनुज रुप में पधारे
सन्तो की महिमा कहाँ तक गांऊँ, वेद पुराण में भी हारे
सन्त सैनजी का जन्म नाई जाति में हुआ था इसीलिए व क्षौर कार्य करके अपनी जीविका चलाते थे, किंतु इसके बाद जो समय मिलता था, उसमें सन्त महात्माओं के आश्रमों, विभिन्न मठों व मंदिरों में जाकर सन्तों-महंतों व सन्यासी महात्माओं का मुंडन करना, दाढ़ी बनाना आदि करते थे| इसके अतिरिक्त सन्तो के चरण दबाना, मालिश करना जैसे सेवा कार्य करते थे तथा आश्रमों में सन्तों की प्रसादी ग्रहण करते थे, इससे आपके जीवन में सात्विकता बढ़ती गई, सतोगुण की वृद्धि हुई|
गोस्वामी जी ने लिखा है :– “तुलसी सेवा सन्त की, कबहु न निष्फल जाय|” सन्तों की सेवा करते-करते, सन्तो के दर्शन, स्पर्श व सत्संग से परमात्मा के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ तथा प्रतिदिन नियमित रूप से पूरी तल्लीनता से भगवत भक्ति करते रहते| रामायण में केवट ने जो भावना भगवान राम से गंगा पार जाने के बाद व्यक्त की थी प्रभु मेरा यह नियम है कि मैं साधु-सन्तों, दीन हीन, गरीब को नांव से गंगा पार उतारने की मजदूरी नहीं लेता हूँ| यही भावना सैनजी महाराज की थी वे भी सन्तों से बिना पारिश्रमिक लिए सेवा करते थे| इसी सन्त सेवा के कारण इन दोनों भक्तों के लिए परमात्मा को आना पड़ा| केवट परिवार सहित भगवान के चरणों को धोकर चरणामृत पान कर अपने कुल सहित मोक्ष का अधिकारी बना और सैनजी के कारण भगवान ने सैन भगत का स्वरूप बनाकर राजा का क्षौर कार्य कर अपने भक्त का मान बढ़ाया|
परमात्मा से साक्षात्कार :- एक समय की बात है – सैन महाराज भगवत भक्ति में लीन थे उसी समय राजा के प्रतिनिधि का बुलावा आया कि महाराज ने राजमहल में उन्हें क्षौर कार्य करने के लिए बुलाया है| सैनजी महाराज पूजा-पाठ में तल्लीन होने के कारण निर्धारित समय पर राजमहल में नहीं पहुंच सके| इस कारण राजा क्रोधित हुए और उन्हें बंदी बनाने की आज्ञा दे दी गई| भक्त पर आए संकट को टालने के लिए भगवान ने जिस प्रकार गजेंद्र, द्रोपदी, विदुर, मीरा, ध्रुव, प्रहलाद की पुकार सुनी उसी तरह सैन भगत का स्वरूप बनकर हाथ में हजामत की पेटी लेकर राज दरबार में पहुंचकर राजा का क्षौर कार्य किया व सेवा की तथा पुन: अंतर्ध्यान हो गये| इधर सैनजी महाराज पूजा-पाठ से निवृत्त होकर दौड़ते भागते हुए राज दरबार में पहुंचे तो देखा कि राजा महाराजा की हजामत बनी हुई है तथा उसकी बरसों पुरानी कोड की बीमारी भगवान के कर कमलों की स्पर्श से समाप्त हो गई| सैनजी महाराज को वास्तविकता समझने में देर लगी यह बात जब राजा को मालूम हुई तो उन्होंने सैनजी महाराज को राज सिंहासन पर बिठाकर सपरिवार चरण धोकर वंदना की तथा उन्हें राजगुरु के पद से सम्मानित किया| इस घटना के बाद से आगे से आपने अधिक से अधिक समय अध्यात्मा में लगाकर अपनी जीवन की दिशा ही बदल दी|
गुरु दीक्षा :- ‘रामानन्द गुरु समरथ मिलया, बेड़ो लगायो पार|’ सन्त सैनजी महाराज ने काशी में जाकर गुरु रामानन्द से गुरु दीक्षा ग्रहण की| वे गुरु रामानन्द जी के कृपा पात्र शिष्य बन गये| रामानन्दजी के शिष्यों में कबीर, रैदास, धन्ना, अनंतानन्द, सुरसुरानन्द, हरहर्यानन्द, योगानन्द, सुखानन्द, भावानन्द आदि हैं| एक भक्त ने सैनजी महाराज पर गुरुदेव की कृपा को इस प्रकार व्यक्त किया – भक्ति के रंग में रंगाई, चुनर गुरुदेव ने ओढाईया चुनर सैन भक्त ने ओढ़ी, आप बने हरि नाई, चुनर गुरुदेव ने ओढाई…|
धर्म ग्रंथों में वर्णन :- सन्त सैनजी महाराज की सेवा, भक्ति का उल्लेख विभिन्न धर्म ग्रंथों, पदों, सोरठों व कवितावलियों में मिलता है| कई भक्तों ने अपने भजनों में आपकी सेवा भक्ति का उल्लेख किया है| एक भक्त ने तो आपकी सेवा भक्ति की उलाहना देते हुए यहां तक लिखा है कि सैन भगत थारो कई सुसरो लागे, जण को कारज सार्यो रे| हाथ राछोनी लेकर तूने, नृप को शीश संवारयो रे| ….. म्हारा नटवर नागरिया भक्ता रे, क्यों नहीं आया रे …. है प्रभु सैन भगत क्या आपका ससुर लगता है जो आपने उसके लिए नाई का स्वरूप बनाकर राजा का केश कर्तन का कार्य भी किया है| यह एक भाषा है जो भजन के माध्यम से परमात्मा को उलाहना दिया गया है|
एक भक्त ने लिखा है कि – भक्त ने ऐसा डाला फंदा, आप बनी हरि नाई नन्दा| सन्त कवि सूरदास ने अपने पद में भी सैनजी महाराज की भक्ति का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है प्रेम के बस नृप सेवा किन्ही, आप बने हरी नाई, सूर कूर इहि लायक नाहीं, कह लगि करों बढ़ाई सबसे ऊंची प्रेम सगाई….
गुरु ग्रंथ साहिब में सैनजी महाराज को राजगुरु का पद देकर राज सिंहासन पर बिठाकर राजा ने पूजन किया उसका उल्लेख इस प्रकार मिलता है – उस दिन सैन ही मिले महीपा, सिंहासन पर बैठाय समीपा, गुरु सरिस पूजन किया, अतिसय आनन्द दाई|
सन्त सैनजी महाराज के जीवन दर्शन से ही स्पष्ट है कि आप तत्कालीन समय के महान सन्त हुए हैं, जिन्होंने सैन समाज में जन्म लेकर पूरे भारतदेश के सैन बंधुओं का गर्व से मस्तक ऊंचा उठाया है| आज भी सम्पूर्ण सन्त समाज में कोई व्यक्ति अपना परिचय सैन कह कर देता है तो अनायास ही उसे सैन भक्त कहकर पुकारते हैं, यह सम्मान हमें सैनजी महाराज की अटूट भक्ति के कारण मिलता है| हमें सन्त सैनजी महाराज की स्मृति कराता है| आज लगभग 700 वर्ष से अधिक व्यतीत हो गये, किंतु आप की भक्ति की पताका आज भी लहरा रही है |
साभार प्रस्तुति – महेश गहलोत मन्दसौर
सैन परिचय (मासिक)
अंक 11, वर्ष 32, अप्रैल 2009 , पृष्ठ 5-7