सन्त शिरोमणि सैनजी महाराज
सन्त सैनजी महाराज के जीवन, साहित्य, भक्ति और सामयिक महत्व की जानकारी आज हमारे लिए बहुत ही आवश्यक हो रही है। सन्त सैनजी को सन्त रामानन्दजी और सन्त ज्ञानेश्वर जैसे ज्ञानसिंधु का सानिध्यप्रेम और समकालीन एकेश्वर वादी सन्तों का साथ मिला, इनके साथ सैनजी प्रतिवर्ष आषाढ़ी एकादशी को पण्ढरपुर की बारी (यात्रा) पर जाया करते थे। भगवान के भक्त अनेकों हुए किन्तु सैनजी की भक्ति से हृदय में अद्भुत भक्तिरस का संचार होता है।
सन्त सैनजी महाराज उत्तर भारत के हिन्दी भाषी सन्त कवि थे। वे जबलपुर के पास बांधवगढ़ के निवासी थे। इनके पिता तथा स्वयं सैनजी बांधवगढ़ के राजा वीरसिंह की सेवा में कार्यरत थे। एक बार ये बिट्ठल दर्शन के लिए पण्डरपुर गए, जहाँ नामदेव आदि सन्तों से बड़े प्रभावित हुए। फिर महाराष्ट्र के सन्तौ के सहवास से मराठी काव्य की रचना करने लगे। इनके रचित करीब 250 पद आज उपलब्ध है।
अपना व्यावसायिक क्षौरकर्म करते हुए भी इनको दर्पण और पानी की कटोरी में भी विठ्ठल के ही दर्शन होते थे।
“करितां नित्यनेम, राये बोलविले जाण ।
पाण्डुरंगे कृपा केली. राया उपदती झाली ॥
मुख पाहंता दर्पणी, आंत दिसी चक्रपाणी ।
कैसी झाली नवलपरी, बाटी माजी दिसे हरि ॥ “
सन्त सैनजी महाराज ने परोपकार को सर्वोच्च पुण्य और पर पीड़ा को सर्वोच्च पाप माना है।
“करितां परोपकार, त्याच्या पुण्या नहीं पार
करितां पर पीड़ा. त्याच्या पापा नहीं जोड़ा ॥
सन्त ज्ञानेश्वर और रामानन्दजी के परिवार के प्रति भी इनकी अपार श्रद्धा थी।
शिव तो निवृत्ति, आदि माया मुक्ताई।
ब्रह्मा तो सौपान, विष्णु ज्ञानदेव पाही ॥’
सन्त सैनजी ने निवृत्तिनाथ को शिव, मुक्ताबाई को आदि माया, सोपानदेव को ज्ञानेश्वर को विष्णु भगवान की संज्ञा दी है। एक बार सैनजी के घर इनके गुरूव समकालीन सन्त सत्संग के लिए आ गए। सैनजी को उनकी आवभक्ति और सत्संग में सम्मिलित होना स्वाभाविक था। उसी समय बांधवगढ़ के राजा का फरमान (बुलावा) राजदरबार का सिपाही लेकर इनके घर पहुंचा और कहने लगा अभी-अभी मेरे साथ राजा ने आपको बुलाया है। सैनजी दुविधा में पड़ गए। एक तरफ सन्तों की टोली सत्संग पर उनके घर, दूसरी तरफ निरंकुश राजा का फरमान (बुलावा) । सन्तों को छोड़ना उनका अपमान समझा जाता था और निरंकुश राजा के फरमान का उल्लंघन भी दण्ड और प्रताड़ना का भय। तब सैनजी ने भगवान विठ्ठल को याद किया। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं श्री हरि ने इनका प्रतिरूप बनकर राजा की कर उस राजा की कोदी काया को निर्मल और सुन्दर बना दिया। ऐसा भगवान ने उनकी भक्ति से प्रभावित होकर घर आए हुए सन्तों के सामने उनका मान रखा। सन्तों की सत्संग समाप्त होने के पश्चात् सेनजी निरंकुश राजा के दण्ड से बचने के लिए दरबार में हाजिर हुए। तब राजा ने कहा- “अभी-अभी तो तुमने हजामत की, जिससे मेरी काया इतनी सुन्दर बन गई है, फिर कोई काम से जाना हो तो बताओ।” सैनजी ने अपनी मनोदशा राजा को बताई तो तत्काल राजा स्वयं सैनजी के चरणों में गिरकर उनके चमत्कार से उनको प्रणाम कर उनका अनुयायी बन गया। यह सैनजी का चमत्कार ही था, जिस तरह सन्त नामदेव ने कोलायत में सूखे कुएं से पानी निकाल कर अपने भक्तों को चमत्कार दिखाया था।
एक बात और अब तक जन साधारण में यह धारणा थी कि सन्त महात्मा केवल ब्राह्मण वर्ग के ही हुए थे किन्तु सन्त सैनजी और इनके समकालीन सन्तों के अध्ययन से मालूम होता है कि उस काल में अधिकांश सन्त आजकल की राजनैतिक भाषा में ”पिछड़ी जातियों के थे जिन्होंने महाराष्ट्र ही नहीं समूचे उत्तर भारत को आध्यात्म के उच्च आदर्शों तक पहुंचा दिया और बहुदेवत्व की प्रचलित बुराइयों को अपने विचारों (पंथ) के माध्यम से समाप्त करने का प्रयास किया। सन्त सैनजी जाति से नाई थे, जनाबाई मराठी कन्या थी, सन्त गौरोबा कुम्हार थे, नरहरि सुनार थे, सांवता माली थे, चोखामेला महार थे, जोगा शुद्र थे, और राका बांका कुम्हार थे।
यह सन्त सैनजी महाराज का चमत्कार ही था कि उन्होंने तात्कालीन गैर ब्राह्मण सन्तों के माध्यम से भगवान की भक्ति का जन-जन में प्रचार व प्रसार कर दिया और यह सिद्ध कर दिया कि प्रभु भक्ति पर किसी वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं होता। इतना ही नहीं सन्त सैनजी महाराज के बाद में उनके ही पदचिन्हों पर चलने वाले भक्त कबीर, रहीम, नानक, अर्जुनदेव, नरसी मेहता और मीरा भी ब्राह्मण वर्ग के नहीं थे।
पिछड़े वर्गों को एक सूत्र में पिरोने का यह पहला प्रयास था। यहाँ यह भी विचारणीय है कि सन्त सैनजी के समकालीन सभी सन्त कोई वैरागी या सन्यासी भी नहीं थे। वे सब गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए सन्तत्व के शिखर तक पहुँचे। गृहस्थ में रहकर धर्म की पताका दूर-दूर तक फहराई। आशा है सन्त सैनजी महाराज को पूरी तरह से समझने के लिए उनके समकालीन सन्दर्भ स्रोतों की ओर अधिक जानकारी उपलब्ध करवाकर आप हमारी मदद कर कृतार्थ करेंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ आपका ही स्वजातीय बन्धु…..
साभार प्रस्तुति- सीताराम मारू (व्यवस्थापक)
सैन दिशा कल्प (द्विमासिक)
अंक 32-33, संयुक्तांक नवम्बर 2008-फ़रवरी 2009,
प्रारम्भ वर्ष 1987, पृष्ठ 3-4