सन्त शिरोमणि श्री सैनजी महाराज
सन्त विश्वकल्याण के परम आधार हैं, उनकी चेष्टा स्वाभाविक ही विश्व के कल्याण के लिए होती है| श्री सैनजी महाराज श्री रामानन्दजी के प्रधान 12 शिष्यों में से थे| साधु-सन्त-महन्त-महापुरुष जाति विशेष के न होकर समग्र समाज के होते हैं और यही कारण है कि सन्त सैनजी महाराज को हर जाति, धर्म और वर्ग के लोग मानते हैं|
सन्त श्री सैनजी का जन्म मध्य प्रदेश के रीवां जिले के बांधवगढ़ में एक धार्मिक नाई परिवार में हुआ था| धार्मिक वातावरण में लालन पालन के फलस्वरुप बालक सैन में बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृति प्रगट होने लगी थी| धार्मिक आव्यानों के श्रवन में सन्त-महात्माओं के दर्शन से उन्हें अत्यंत आनंद की अनुभूति हुआ करती थी| युवावस्था में ही विकसित हो रही आध्यात्मिक भावनाओं ने उन्हें रामानंदजी महाराज के श्रीचरणों में लाकर रख दिया, जहां उनकी दीक्षा हुई| युवा सैनजी की उक्त आध्यात्मिक भावनायें सबल हो गई और वे समकालीन कबीर, रैदास, नामदेव, पीपा , धन्ना आदि प्रमुख भक्तों के साथ रामानंदजी के शिष्य हो गए| अपने गुरु की असीम कृपा से सैनजी ने तत्कालीन धार्मिक जगत में भक्तराज सैन के रूप में खूब ख्याति अर्जित करने में सफलता प्राप्त की|
सन्त शिरोमणि सैन को बाह्याडम्बर बिल्कुल पसंद नहीं थे| वे गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारी को निभाते हुए अपने धार्मिक कर्तव्यों को आजीवन पालन करते रहे| अपने धार्मिक जीवन के आरंभिक दौर में उन्होंने काशी, अमृतसर, मथुरा, वृंदावन, प्रयाग तीर्थ स्थानों की यात्रायें की, जहाँ पण्डों द्वारा धर्म के नाम पर किए जाने वाले पाखंड को उन्होंने स्वयं तो देखा, उन्हें तीर्थ स्थानों से विरक्ति हो गयी| तीर्थ उनके विचारों से पाखण्ड के अड्डे बन चुके थे| ढोंगी और पाखंडी साधुओं से उन्हें बड़ी घृणा हो गयी थी| उन्होंने न तो कभी भगवा कपडे पहने और न कभी बाल ही मुंडवाये, न कभी चुटिया और न ही गृह त्याग किया, फिर भी वे अपने आध्यात्मिक गुणों एवं भक्ति भावनाओं के फलस्वरूप लोगों में चर्चित हो गए|
सन्त सैन ब्राहमणो के तथाकथित श्रेष्ठता के अभिमान को व्यर्थ समझाते थे | चूँकि कर्मकांडों में निहित भूमजालों के विपरीत सन्त के सरल गुणों के वे हिमायती थे| सत्संग और नाम स्मरण पर उनकी गहरी आस्था थी| सेवा, धर्म, प्रेम, भक्ति और मधुर व्यवहार को वे सन्त का का प्रमुख लक्षण मानते थे| श्री सैनजी महाराज निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे| उनमें श्रीराम भी, गुरुनानक के राम की भांति निर्गुण ब्रह्म के प्रतीक थे| उनका धार्मिक उच्च कोटि का था| यही कारण था कि वे श्रेष्ठ गुणों को स्वयं जीवन में ग्रहण करने का उपदेश अपने अनुयायिओं को दिया करते थे| सादगी और उच्च विचार उनमे कूट-कूट कर भरे थे|
धार्मिक विद्वेष जनित उन्माद के स्थान पर परस्पर धार्मिक सहिष्णुता इनके जीवन की विशेषता थी| हालाँकि वे अपने उपदेशों में सर्वधर्म सद्भाव को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए मूर्ति पूजा, श्राद्ध संस्कार आदि दुर्गुणों का प्रबल विरोध करते थे| परन्तु यहां उल्लेखनीय और हास्यादपद तथ्य यह है कि मूर्ति पूजा और श्राद्ध संस्कार के प्रति उनके विश्वास के सर्वथा विपरीत उनके वर्तमान अनुयायी निहित स्वार्थवश उनके नाम पर मंदिरों का निर्माण कर उनकी प्रतिमाओं की स्थापना तथा उनकी दिखावटी पूजा-पाठ कर उनके ही प्रगतिशील उपदेशों का माहोल उड़ाने में संलग्न है| सन्त सैनजी अपने समय के गिने-चुने समाज सुधारकों में जाने जाते थे| तत्कालीन समाज में व्याप्त वर्णभेद, ऊँच-नीच, छुआ-छुत, विधवा दहन , बाल विवाह जैसी कुरीतियों के आगे बढ़कर कटु आलोचना करने में वे किसी की परवाह नही करते थे| सच तो यह है कि इस मामले में किसी भी प्रकार का दबाव के आगे घुटने टेकना उनकी प्रकृति के बिल्कुल विपरीत बात थी| परंपरागत दकियानूसी विचारों, बनावटी ऊंच-नीच का भेदभाव व पाखंड को नकारते हुए समानता और भाईचारे के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देकर एवं प्रखर प्रवक्ता के रूप में उन्होंने महान मानवतावादी दृष्टिकोण का परिचय दिया था|
उन्होंने लगभग एक सौ पचास अभंगों की रचना की थी| यद्यपि एक और सामाजिक रुप से अत्यंत पद दलित जाति का होने के कारण उनके विरुद्ध व्याप्त द्वेष भावना एवं तत्कालीन साहित्य के सभी अंगो पर सवर्ण शिक्षित जातियों का बोलबाला होने तथा दूसरी ओर शैक्षणिक दृष्टीकोण से सैन समाज सहित अन्य निम्न तबकों में फैले उनके अनुयायियों के अत्यंत पिछड़े होने के फलस्वरुप उनकी रचनाएं विशेष प्रसिद्ध अथवा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं कर सकी, अद्भुत लोकप्रियता हासिल हुई, जो धार्मिक किवदंतियों के रूप में ही सही पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे प्रांतों में सुरक्षित है|
साभार प्रस्तुति
आनंद सैन , जबलपुर
सैन वाणी ( सैन जन्मोत्सव विशेषांक)
अंक 17/18 , वर्ष -2 , पृष्ठ 3-4