मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति तो यह है कि सदैव वह स्वयं के लिए श्रेष्ठ ही होने की अपेक्षा रखता है, लेकिन ऐसा फलिभूत होना तो ऐसे आत्मचिंतन पर निर्भर करता है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व को त्रुटि रहित बनाने का प्रयास करता है| उज्जवल भविष्य की अपेक्षा तो सब रखते हैं, लेकिन उसी मनुष्य का भविष्य सुखद संभावनाओं से भरा होता है, जो वर्तमान को अपने आत्मचिंतन स्वाध्याय करता हुआ स्वयं को परिमार्जित करता है| अतः विवेकशील व्यक्ति ऐसा करके देवत्व सा निखार ला सकता है|

– परम श्रध्देय सैनाचार्य श्री का वचनामृत