शाश्वत संस्कृति के पोषक सन्त शिरोमणि सैनजी महाराज
भारतीय सन्त परम्परा में सन्त शिरोमणि सैनजी जी महाराज का महत्वपूर्ण स्थान है| इनका प्रादुर्भाव तब हुआ था जब समाज एक तरफ से धार्मिक असहिष्णुता के दौर में था| पुण्यभूमि बांधवगढ़ (मध्यप्रदेश) के निवासी उग्रसेन नापित की धर्मपत्नी यशोदा के गर्भ से वृद्धावस्था में वैशाख कृष्ण पक्ष द्वादशी, रविवार, विक्रम संवत 1357 को पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र, तुला लग्न, ब्रह्म योग में भक्ति मार्ग के रहस्य दर्शी सन्त शिरोमणि सैनजी महाराज का जन्म हुआ था| इनका जन्म नाम रामसेन रखा गया था| अगस्त्य संहिता के कथनानुसार सैनजी महाराज महाभारत के भीष्म पितामह का अवतार माने गए हैं| जब संकल्पवान व्यक्ति अपनी देह छोड़ता है तो वह स्वैच्छा से पुन: जन्म भी ले सकता है | यह तो सर्वविदित तथ्य है कि भीष्म पितामह महासंकल्पवान जगत पुरुष थे| उन्होंने मृत्यु शैय्या पर ही भविष्यवाणी कर दी थी कि मैं वैशाख कृष्ण पक्ष द्वादशी, पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र, रविवार को ब्रह्मयोग में जन्म लूंगा| सैनजी जी महाराज का जन्म इसी नक्षत्र, दिन एवं घड़ी में होना इस तथ्य का एक अकाट्य प्रमाण है कि भीष्म पितामह ने ही नापित जाति में रामसेन के रूप में जन्म लिया था| यह तथ्य निरापद सत्य है कि जब कोई दिव्य आत्मा जन्म लेती है तो उसके व्यक्तित्व-कृतित्व की अनूठी छाप जन्म एवं कर्म में होती है| सैनजी महाराज के व्यक्तित्व में अलौकिक प्रतिभा भक्तियोग के समष्टि रूप में अवतरित हुयी|
कालचक्र की गति के साथ-साथ बालक रामसेन के शारीरिक अवयवों में वृद्धि होती गयी| अल्पायु में ही उनके अंग-अंग में स्फूर्ति एवं तेज की छटा झलकने लगी थी| 5 साल की आयु में बालक रामसेन से कोई पंजा लड़ा कर जीत नहीं सकता था| 10 वर्ष की उम्र आने तक तो रामसेन एक वरिष्ठ पहलवान से लगने लग गए थे| अपने पैत्रिक कार्य और कर्म में निपुणता प्राप्त कर ही ली थी तथा भीष्म पितामह जैसी एकाग्रहता भी उनमें दृष्टिगत होती थी| वह अपने क्षौर कार्य में इतना पारंगत माने जाते थे कि निद्रा अवस्था वाले व्यक्ति का भी क्षौर कार्य कर देते थे| बालक रामसेन जी का व्यक्तित्व नवरत्नों की इन्द्रायुधी क्रांति, कर्पुर तथा पुष्पों से सुगंधित प्रेम एवं क्षेम के हृदय पात्र से ढला था, जिसे ब्रह्मा ने काव्यनाद पूरित संगीत कला की कामनियता से पोषित किया था| विधाता ने करुणा की पुष्ठकरणी में नहलाकर बालक रामसेन को वज्र का सा बल एवं प्रहार , वाणी में प्रभाजन, जीवन में मनुष्यत्व एवं देवत्स दिया था| रामसेन जी की लोकप्रियता, जनख्याति, निष्ठा तथा चारित्रिक प्रतिभा से प्रभावित होकर रीवां नरेश श्री राचन्द्र जी ने रामसेन जी को अपनी व्यक्तिगत सेवा में नियुक्त कर लिया| एक बार रीवां नरेश के साथ रामसेन जी काशी यात्रा पर गए तथा एक सन्यासी से अनायास भेंट हुई| सन्यासी ने रामसेनजी से क्षौर कार्य हेतु कहा तथा महात्मा जी के इस आग्रह को रामसेन जी टाल नहीं सके| उन्होंने बड़े श्रद्धाभाव से सन्यासी का क्षौर कार्य किया लेकिन सन्यासी शिखा को लेकर रामसेन से विवाद में उलझ पड़ा| सन्यासी अपनी शिखा को कटवाना चाहता था, लेकिन रामसेन ऐसा करने को किसी भी हालत में तैयार नहीं| इस उत्पन्न विवाद को विराम देने के लिए रामसेन जी एवं सन्यासी श्रीमठ पंचगंगा घाट, काशी के पीठाधीश्वर गुरु रामानंदाचार्य जी के पास पहुंच गए| आचार्य श्री की मध्यस्थता से रामसेन जी ने सन्यासी की शिखा का मुंडन कर दिया| योग और भक्ति की ऊंचाइयों को छूने वाले परम श्रद्धेय जगद्गुरु रामानंदाचार्य जी का शंखनाद सुनकर लोगों के मनोरथ पूर्ण हो जाते थे| कहा जाता है कि उनके शंखनाद में संजीवनी थी, इस संबंध में अनेक उदरण श्री रामानंदाचार्य जी के जीवन चरित्र में पढ़ने को मिलते हैं|
एक दिन रामसेन जी श्रीमठ पहुंचे, उस समय श्रीमठ आचार्य शंखनाद कर रहे थे| रामसैन जी उनके शंखनाद के श्रवणमात्र से अपने अन्तरमन में उतर गए तथा अनायास ही उन्हें पूर्व जन्म का आभास होने लगा| आचार्य श्री ने अपने अंतरदृष्टि से रामसैन को देखा| श्री रामसैन ने आचार्य श्री के चरणों में समर्पित होकर गुरु दीक्षा के लिए अनुरोध किया | आचार्य श्री ने रामसैनजी के भूत-भविष्य को देखकर दीक्षा प्रदान की| तत्पश्चात रामसैन बांधवगढ़ को प्रस्थान कर गये| नित्य प्रति भक्ति भावपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे तथा लोक चर्चा में रामसैन से सैनभक्त का नामकरण हो गया| जब भी उनका मन करता, वे काशी में आचार्य श्री के दर्शनार्थ आ जाया करते थे| एक बार आचार्य श्री महाभारत कथा के संदर्भ में भीष्म पितामह के संकल्प का विवेचर कर रहे थे कि अचानक सैन भक्त का शरीर पसीने से लथपथ हो गया तथा वे मूर्छित हो गये| आचार्य श्री के निकटतम शिष्य अनन्तानन्दाचार्य जी के प्रयासों से सैन भक्त की चेतना वापस आयी तथा आचार्य श्री ने अपने गले का हार सैन भक्त के गले में डालकर सदुपदेश के साथ साधु-सन्तों की सेवा करने के लिए घर जाने की अनुमति दी| सैन भक्त अपने गुरु आज्ञा से घर आकर परिवार के साथ सुखपूर्वक रहने लगे| वे कर्मठ, निष्ठावान, निर्लोभी, सर्वहितेषी, दयावान, भक्तों के सेवक, अन्तर जगत की यात्रा के साथ बाह्य जगत के कार्यक्षेत्र में सर्व व्याप्त थे| सन्त समागम एवं सन्त सेवा वृति के कारण सैन भक्त से वे सन्त सैनजी महाराज हो गये|
नियति का नियम है कि जब- जब भयावह समस्याएं उत्पन्न होती है, तब-तब समस्याओं के समाधान हेतु महान आत्मा के अनुरूप चेतनायें जन्म लेती है, भारत राष्ट्र पर विदेशी शासन का शिकंजा था, जनमानस दासता की बेड़ियों का शिकार था, देश की सनातन संस्कृति के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के दुष्प्रयास जारी थे| धार्मिक स्थलों एवं मठों की तोड़-फोड़ जारी थी, ऐसी विकटतम एवं विषम परिस्थितियों में भक्तों की पुकार से पराशक्ति ने विक्रम संवत 1356 में एक दृढ कवचधारी जागृत महापुरुष रामानंदजी को प्रकट किया, जो इस भरत भूमि पर हिंदू धर्म का उद्धार करने में समर्थ हुये| श्रीरामानंदाचार्य के असंख्य शिष्यों में से 13 शिष्य विशेष रूप से प्रसिद्ध हुये| इन शिक्षकों को अवधूत कहा गया अर्थात मुक्तप्राणी| इन शिष्यों में स्वामी अनन्तानन्दाचार्य जी, सुखानन्दाचार्य, नरहर्यानन्दाचार्य, योगानन्दाचार्य भावानन्द, पीपा, कबीर, सैन , धन्ना, रेदास, रमादास, जालवनन्द आदि उल्लेखनीय हैं| रहस्यमयी टीकाकारों ने तेरह जान पड़ने वाले शिष्यों को सार्द्ध द्वादस शिष्य ही कहा है| रामानंद रूपी वट-वृक्ष में द्वादश स्कंध ऐसे अवतरित हुये जो किसी के काटने से भी नहीं कटे| इन्होंने देश के कोने-कोने में भ्रमण कर भारतीय समाज में जनचेतना जागृत की| द्वादश शिष्यों में प्रधान शिष्य युग प्रवर्तक सन्त शिरोमणि सैनजी महाराज देवताओं के समतुल्य पूजनीय हैं|
रामानन्द जन्मोत्सव में लिखा है कि आचार्य रामानन्दाचार्यजी की पूजन विधि यह है कि तेरह कमलपत्रों एवं तेरह शिष्यों की स्थापना कर, विधि-विधान से पूजन करते हैं| देश के हिंदू धर्म पर शोध करने वाले विल्सन अपनी पुस्तक हिंदू रिलिजन्स में लिखते हैं कि सैनजी जी महाराज आचार्य रामानन्दाचार्य जी के ऐसे प्रमुख शिष्य थे, जिन्होंने प्रथम संप्रदाय चलाया तथा सैनजी जी महाराज की पीठ काशी में स्थित है| आज भी काशी में सैनपुरा नाम का एक मोहल्ला सुप्रसिद्ध है| ज्ञान, कर्म और योगभक्ति की साक्षात मूर्ति सन्त शिरोमणि सैनजी जी महाराज के कर्म में वीरता, क्षमा, शीतिलता, साहस, धैर्य, आत्मिक बल आदि दिव्य गुण विद्यमान थे| भक्ति के फलस्वरुप ईश्वर ने भी आपका स्वरूप धारण कर बांधवगढ़ नरेश का क्षौर कार्य किया| परिणामत: राजाराम नरेश ने सैनजी महाराज को अपने कुलगुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया| राजकोष से विपुल धनराशि सन्त सेवा के लिए प्रदान कर, नित्य रात्रि में गुरुदर्शन एवं सत्संग के लिए सैनजी महाराज के पास बांधव नरेश आने लगे|
उपर्युक्त तथ्यों के संदर्भ में बहुत से दार्शनिक एवं चिंतकों ने अपने मन्तव्य प्रकट करते हुए इस पहलु उसको सही पाया कि भक्तमाल, श्री ध्रुवदास कृत भक्त नामावली हिंदी विश्वकोश भक्तमाल, श्रीमच्छचन्द्र सैनजी स्वरप्नागत भगवत प्रेरितेन विचचितवानी की संस्कृत भक्तमाला, मराठी भाषा में प्रकाशित भक्त विजय आदि ग्रंथों में यह घटना पढ़ने को मिलती है| सैनजी जी महाराज अपने साधनाकाल में बारह वर्षों तक मौन व्रत में रहे| इस अवधि में भक्तों की गुढतम शंकाओं को संकेत से निवारित करते थे, इसी कारण सैन नामकरण प्रचलित हुआ| निश्चित ही इस राष्ट्र का ना नभ मंडल सन्तों से भरा पड़ा है| अन्नत-अन्नत सितारे हैं, यद्यपि ज्योति सभी की एक ही है, लेकिन सन्त शिरोमणि सैनजी जी महाराज एक ध्रुवतारा है| नापित कुल में जन्म लेकर काशी के पंडितों को विवश कर दिया था कि सैनजी महाराज ईश्वरीय अनुकंपा है तथा आध्यात्मिक-ज्ञान प्रतिभा विलक्षण है| प्रचलित विभिन्न धर्मग्रंथों शास्त्रों में सैनजी महाराज की शिक्षाएं यथा-स्थान अंकित है| सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानक देव को सैन जी महाराज के छन्दों ने इतना रिझाया कि उनके पदों को इन्होंने आरती के विशिष्ट दोहों में स्थान प्रदान किया| आज भी मंगला आरती में गाया जाने वाला छन्द इस प्रकार है :-
मंगल हर मंगल नित्य राजाराम, कुमत हियरावती तु ही निरंजन कमलापति
रामा भक्त रामानन्द जाने पूरण परमानन्द बखानि, मदनपूर्ति अवतार गोविंद सैन भये भज परमानन्द
सैनजी जी सौहार्द सहभागिता के साथ कर्म मार्ग पर भी सदा गतिमान थे, सैनजी जी ने क्षौर कर्म को छन्द के आबध्द कर जो कर्म भक्ति की, वह उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है –
रामनाम नामी जनतेरा, चाम से छुरि, चाम सी बाहती, चामो लागे डेरा,
चामे मुंडे, चामे मुंडवे, समजि देख मन मोरा|
मनुष्य के विकास के जो श्रेष्ठतम एवं उच्चतर संभावनायें हैं वह महामानव सन्त शिरोमणि सैनजी जी महाराज के द्वारा गाये गये पदों से विदित है| उन्होंने मराठी, मारवाड़ी, गुरुमुखी आदि अनेक भाषाओं में गाये गये छन्दों में चेतना जगत का चित्रण किया| इन्होंने अपने मूल संदेश में बताया कि – राष्ट्र की एकता, प्रेम, स्वतंत्रता पर आधारित है, घृणा एवं हिंसा पर नहीं| यही पहलु मानव को मानव से जोड़ती है| इस उच्च कोटि के क्रांति दृष्टा ने अपने रचित पदों से जनमानस के लिए सात्विक मार्ग प्रशस्त किया|
प्रो रानाडे इनके पदों की व्याख्या करते हुये सन्त ज्ञानेश्वर के समकालीन निरूपित किया था| जीवन के अंतिम समय में सैनजी जी महाराज अपना स्थाई निवास बनाकर रहने लगे| यही करीब 50 वर्ष की उम्र में श्रावण बदी द्वादशी को अपना शरीर त्याग कर सन्त शिरोमणि सैनजी जी महाराज परीनिर्वाण में लीन हुये| सैनजी परंपरा का पुनर्जागरण संपूर्ण सैनजी समाज के लिए स्वर्णिम अवसर है| पंचगंगा घाट-श्रीमठ, काशी स्थित रामानंद पीठ के पीठाधीश्वर स्वामी रामनरेशाचार्य जी की हम सब कृतज्ञ हैं कि उन्होंने इस समाज को तिरोहित हो रही परंपरा को अपनी चिंतन दृष्टि से जागृत कर अखिल भारतीय स्तर पर सैन भक्तिपीठ की स्थापना की तथा स्वामी श्री श्री 1008 श्री अचलानन्दाचार्य जी जैसे निश्छल एवं धर्म-साधना वाहक अपने सैन समाज के सन्त को सैनाचार्य श्री के पद पर विभूषित किया| सैन जन्मस्थली “बांधवगढ़” हम सबके लिए एक पवित्रतम तीर्थस्थल है| यही वो स्थान है जहां सैनजी महाराज के जन्म, कर्म, धर्म, आराधना एवं साधना का केंद्र रहा है| इतिश्री|
साभार प्रस्तुति – वैद्य केशरीमल परिहार, सांगलिया (राजस्थान)
सैन भक्तिपीठ संदेश – मासिक, माह कार्तिक – मार्गशीर्ष, विक्रम संवत 2055, संयुक्तांक, पृष्ठ 3 – 7